ये सच कहते मेरी जुबां नहीं थकती,
हम हैं जंगल के वासी पर ,
ना जाने सरकार हमसे क्या है चाहती ।
ना हम हैं नक्सल और ना कोई उग्र जाति,
ना जानें क्यों पिस्ते हैं हम भगदड़ में मासूम आदीवासी ।
कोयले की अब जो खदाने हैं जो कभी थे जंगल,
ना जानें क्या-क्या बिक गया ना बचा आने वाला कल ।
रहने को घर तो है सहीं, सभी हर जगह मगर,
सुरक्षित नहीं है कोई कैसे बोएगा आने वाला कल ।
मार दिए जाते हैं अपने उग्र बता कर,
होश में कहॉं रहते हैं बंदूक रखने वाले यहॉं पर ।
अख़बार भी इनकी ही अगुवाई करता है ,
ना जाने तानाशाही किसका यहॉं चलता है ।
मुझे तो मालूम नहीं सरकार यहॉं किसकी है बैठी ,
पर मालूम ये है मासूमों पर अत्याचार है करती ।
आरोप तो बेवजह लगा दिए जाते हैं बिना सबूत के,
जेल में ठूंस दिए जाते हैं या मार दिये जाते हैं कहीं पे ।
ये सच है लाचार, बेबस इंसा करेगा ही क्या यहॉं पर ,
या तो गुलामी करेगा या शिकार बनजाएगा कहीं पर ।
कहते हैं कुछ लोग , लोगों में समानता होनी चाहिए,
फिर क्यों लड़ पड़ते हैं लोग जात के नाम पर ।
मुझे डर है की ये जात की बीमारी सब को ले डूबेगी,
हर बेगुनाह मरेगा और लाशे उठ रही होंगी ।
बेचा जाएगा सब को बोलियां लगा कर,
मानव तस्करी होगी कोई नहीं बचेगा यहॉं पर ।
क्यों हैं हमसे लड़ रहे क्या बनाना चाहते हैं यहॉं पर,
बेघर तो सब को कर रहे सब को जंगली बता कर ।
सच्चाई नहीं छिपेगी अब यहॉं कहीं पर,
हम आदिवासी हैं इतना तो जानते हैं सभी पर ।
ये सच कहते मेरी जुबां नहीं थकती ,
हम हैं जंगल के वासी पर ,
ना जाने सरकार हमसे क्या है चाहती....
- डेनिरो सलाम