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पावन प्रेम

Sahil Raza

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तू वीर है या वीणा सह जाती है सब पीड़ा करुण तरंगों को सहना है क्या तेरे लिए क्रीडा ? नर देता बांध तुझ पर करुणा के डोर को तू शाह समझ लेती क्यों इस चोर को इस नर को क्यों सुनाती करुणा रूपी गान को जो जरा भी ना देता तरजीह तेरे आन को तुझ पर तंज कस गाते अपने गुणगान को खुद सुनाते अपनी विरह व्यथा जब बारी आए तेरी तो बंद कर लेते कान को तू जब भी करती परिश्रम बढ़ाने इन के सम्मान को यह समझ बैठते तूने किया है इनके अपमान को पावन ऋतु की हो तुम अनूठी वेश कुंडल वन में यह हरियाली है या हैं तुम्हारे केश तुम हो उत्कंठित हृदय की पवित्र नगरी तुम को खोज फिरुं जन-जन,प्रदेश-प्रदेश तुम हो राग प्रतिमा आए संग तुम्हारे अणिमा तुमसे आकर्षित क्यों ना होऊ तुम में है क्या द्वेष तुम रस में डूबो अमृत हो उपवन से त्वरित विरह रजनी की तुम रानी मैं उत्कण्ठित नरेश आओ मिटाओ मेरी समग्र क्लांताएं दूर करो जीवन के अनंत क्लेष l रसगुल्ला बंगाल के सौजन्य लिट्टी चोखा बिहार के है शान बड़ा पाव बम्बईया के जीविका रंग बिरंग पकवान के शहंशाह हिंदुस्तान| इहीं दयानंद हुएं,गुरु गोविंद जनम लिए हुएं विज्ञान के सिपाही कलाम | ए वीर पुरुषों की जननी हिंद तुम को कोटि-कोटि प्रणाम ||  

pavan prem

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