बहुत चाहा कि मैं भी
हो जाऊं ,
नम्र, विनम्र बिलकुल
तुम्हारी मां की तरह ।
पर ना जाने कहां से
आ जाती है
पिता जन्य कठोरता ,
मुझमें ,अपने आप से ।
में अब भी चाहता हूं कि
अब भी तुम,
सड़क पार करो
मेरी उंगली पकड़कर ।
मेरे कंधों पर चढो
और दुनिया देखो।
कितना अव्यवहारिक हो
जाता हूँ मैं
बिना स्वीकार किये कि
दुनिया कितनी बदल गयी है
और कंधे भी मजबूत नहीं
रहें है
पहले की तरह ।
बस यही सब
कितना अलग बना देता
है एक पिता को
एक मां से ।
तुम असहमत हो कर भी
सहमत हो जाते हो
और उस समय
तुम्हारी माँ ही जताती है
असहमति ।
में समझ सकता हूँ
इस वक़्त ,
तुम्हारी माँ के भीतर
तुम्हारी जुबान बैठ गयी है ।
बन गया है एक पुल
जहां से होकर
तुम मेरे करीब
पहुंच जाते हो अक्सर ।
हां, सच है कि ज्यादातर
पिता पुत्र के बीच
कोई अदॄश्य दूरी होती है
शायद वो जरूरी भी होती है ।
समझ सका सिर्फ
पिता बनने के बाद ।
गन्ने की कोई पोर
आवरण की कठोरता
के बावजूद
भीतर से कितनी मुलायम
मीठी हो सकती है
खुद ही जान जाओगे
पिता होने के बाद ।