‘पन्द्रह पाँच पचहत्तर' की कविताएँ पंद्रह खंडों में विभाजित हैं और हर खंड में पाँच कविताएँ हैं। गुलज़ार का यह पहला संग्रह है, जिसमें मानवीयकरण का इतना व्यापक प्रयोग किया गया है। यहाँ हर चीज बोलती है-आसमान की कनपट्टियाँ पकने लगती हैं, काल माई खुदा को नीले रंग के, गोल-से इक सय्यारे पर छोड़ देती है, धूप का टुकड़ा लॉन में सहमे हुए एक परिंदे की तरह बैठ जाता है...यहाँ तक कि मुझे मेरा जिस्म छोड़ कर बह गया नदी में। यह कोई उक्ति-वैचित्र्य नहीं, बल्कि वास्तविकता का बयान करने की एक नई, आत्मीय शैली है। यह वास्तविकता भी कुछ नई-नई-सी है, जिसकी हर परत से एक कोमल उदासी बाविस्ता है। यह उदासी जहाँ हमारे युगबोध को एक तीखी धार देती है, वहीं उसकी कोमलता की लय ज़िन्दगी को जीने लायक बनाती है। कुल मिला कर, पचहत्तर नज़्मों में बिखरा हुआ यह महाकाव्य हमारी अपनी ज़िन्दगी और हमारे अपने परिवेश की एक ऐसी इंस्पेक्शन रिपोर्ट है जिसका मजमून गुलज़ार जैसा संवेदनशील और खानाबदोश शायर ही कलमबंद कर सकता था।
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