प्रेम क्या है...?
मैनें सुना है, एक बहुत पुराना वृक्ष था. आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे. उस पर फूल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेने आते. उस पर फल लगते थे तो तितलियाँ उड़तीं. उसकी छाया, उसके फैले हाथ, हवाओं में उसका वह खड़ा रूप आकाश में बड़ा सुन्दर था. एक छोटा बच्चा उसकी छाया में रोज खेलने आता था. और उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया.
बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है, अगर बड़ों को पता न हो कि हम बड़े हैं. वृक्ष को कोई पता नहीं था कि मैं बड़ा हूँ...यह पता सिर्फ आदमी को होता है...इसलिए उसका प्रेम हो गया.
अहंकार हमेशा अपने से बड़ों को प्रेम करने की कोशिश करता है. अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से संबंध जोड़ता है. प्रेम के लिए कोई बड़ा-छोटा नहीं. जो आ जाए, उसी से संबंध जुड़ जाता है.
वह एक छोटा सा बच्चा खेलता था उस वृक्ष के पास; उस वृक्ष का उससे प्रेम हो गया. लेकिन वृक्ष की शाखाएँ ऊपर थीं, बच्चा छोटा था, तो वृक्ष अपनी शाखाएँ उसके लिए नीचे झुकाता, ताकि वह फल तोड़ सके, फूल तोड़ सके.
प्रेम हमेशा झुकने को राजी है, अहंकार कभी भी झुकने को राजी नहीं हैं. अहंकार के पास जाएँगे तो अहंकार के हाथ और ऊपर उठ जाएँगे, ताकि आप उन्हें छू न सकें. क्योंकि जिसे छू लिया जाए वह छोटा आदमी है; जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो, वह बड़ा आदमी है.
वह वृक्ष की शाखाएँ नीचे झुक आतीं जब वह बच्चा खेलता हुआ आता! और जब बच्चा उसके फूल तोड़ लेता, तो वह वृक्ष बहुत खुश होता. उसके प्राण आनंद से भर जाते.
प्रेम जब भी कुछ दे पाता है, तब खुश हो जाता है.
अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है.
फिर वह बच्चा बड़ा होने लगा. वह कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बना कर पहनता और जंगल का सम्राट हो जाता.
प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसते हैं, वही सम्राट हो जाता है. और जहाँ भी अहंकार घिरता है, वहीं सब अन्धेरा हो जाता है, आदमी दीन और दरिद्र हो जाता है.
वह लड़का फूलों का ताज पहनता और नाचता, और वह वृक्ष बहुत खुश होता, उसके प्राण आनंद से भर जाते. हवाएँ सनसनातीं और वह गीत गाता.
फिर लड़का और बड़ा हुआ. वह वृक्ष के ऊपर भी चढ़ने लगा, उसकी शाखाओं से झूलने भी लगा. वह उसकी शाखाओं पर विश्राम भी करता, और वृक्ष बहुत आनंदित होता. प्रेम आनंदित होता है, जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है.
अहंकार आनंदित होता है, जब किसी की छाया छीन लेता है.
लेकिन लड़का बड़ा होता चला गया, दिन बढ़ते चले गए. जब लड़का बड़ा हो गया तो उसे और दूसरे काम भी दुनिया में आ गए, महत्वाकांक्षाएँ आ गईं. उसे परीक्षाएँ पास करनी थीं, उसे मित्रों को जीतना था. वह फिर कभी-कभी आता, कभी नहीं भी आता, लेकिन वृक्ष उसकी प्रतिक्षा करता कि वह आए, वह आए. उसके सारे प्राण पुकारते कि आओ, आओ!
प्रेम निरंतर प्रतिक्षा करता है कि आओ, आओ!
प्रेम एक प्रतिक्षा है, एक अवेटिंग है.
लेकिन वह कभी आता, कभी नहीं आता, तो वृक्ष उदास हो जाता.
प्रेम की एक ही उदासी है...जब वह बाँट नहीं पाता, तो उदास हो जाता है. जब वह दे नहीं पाता, तो उदास हो जाता है.
और प्रेम की एक ही धन्यता है कि जब वह बाँट देता है, लुटा देता है, तो वह आनंदित हो जाता है.
फिर लड़का और बड़ा होता चला गया और वृक्ष के पास आने के दिन कम होते चले गए.
जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है महत्वाकांक्षा के जगत में, प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है. उस लड़के की एंबीशन, महत्वाकांक्षा बढ़ रही थी. कहाँ वृक्ष! कहाँ जाना!
फिर एक दिन वहाँ से निकलता था तो वृक्ष ने उसे कहा, सुनो! हवाओं में उसकी आवाज गूँजी कि सुनो, तुम आते नहीं, मैं प्रतिक्षा करता हूँ! मैं तुम्हारे लिए प्रतिक्षा करता हूँ, राह देखता हूँ, बाट जोहता हूँ!
उस लड़के ने कहा, क्या है तुम्हारे पास जो मैं आऊँ? मुझे रुपये चाहिए!
हमेशा अहंकार पूछता है कि क्या है तुम्हारे पास जो मैं आऊँ? अहंकार माँगता है कि कुछ हो तो मैं आऊँ. न कुछ हो तो आने की कोई जरूरत नहीं.
अहंकार एक प्रयोजन है, एक परपज़ है. प्रयोजन पूरा होता हो तो मैं आऊँ! अगर कोई प्रयोजन न हो तो आने की जरूरत क्या है!
और प्रेम निष्प्रयोजन है. प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं. प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वह बिलकुल परपज़लेस है.
वृक्ष तो चौंक गया. उसने कहा कि तुम तभी आओगे जब मैं कुछ तुम्हें दे सकूँ? मैं तुम्हें सब दे सकता हूँ. क्योंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता. जो रोक ले वह प्रेम नहीं है. अहंकार रोकता है. प्रेम तो बेशर्त दे देता है. लेकिन रुपये मेरे पास नहीं हैं. ये रुपये तो सिर्फ आदमी की ईजाद है, वृक्षों ने यह बीमारी नहीं पाली है.
उस वृक्ष ने कहा, इसीलिए तो हम इतने आनंदित होते हैं, इतने फूल खिलते हैं, इतने फल लगते हैं, इतनी बड़ी छाया होती है; हम इतना नाचते हैं आकाश में, हम इतने गीत गाते हैं; पक्षी हम पर आते हैं और संगीत का कलरव करते हैं; क्योंकि हमारे पास रुपये नहीं हैं. जिस दिन हमारे पास भी रुपये हो जाएँगे, हम भी आदमी जैसे दीन-हीन मंदिरों में बैठकर सुनेंगे कि शांति कैसे पाई जाए, प्रेम कैसे पाया जाए. नहीं-नहीं, हमारे पास रुपए नहीं हैं.
तो उसने कहा, फिर मैं क्या आऊँ तुम्हारे पास! जहाँ रुपए हैं, मुझे वहाँ जाना पड़ेगा. मुझे रुपयों की जरूरत है.
अहंकार रुपया माँगता है, क्योंकि रुपया शक्ति है. अहंकार शक्ति माँगता है.
उस वृक्ष ने बहुत सोचा, फिर उसे खयाल आया...तो तुम एक काम करो, मेरे सारे फलों को तोड़कर ले जाओ और बेच दो तो शायद रुपये मिल जाएँ.
और लड़के को भी खयाल आया. वह चढ़ा और उसने सारे फल तोड़ डाले. कच्चे भी गिरा डाले. शाखाएँ भी टूटीं, पत्ते भी टूटे. लेकिन वृक्ष बहुत खुश हुआ, बहुत आनंदित हुआ.
टूटकर भी प्रेम आनंदित होता है.
अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता, पाकर भी दुखी होता है.
और उस लड़के ने तो धन्यवाद भी नहीं दिया पीछे लौटकर.
लेकिन उस वृक्ष को पता भी नहीं चला. उसे तो धन्यवाद मिल गया इसी