अनुभव करो कि समस्त आकाश तुम्हारे आनंद-शरीर से भर गया है।
सात शरीर होते है। आनंद-शरीर तुम्हारी आत्मा के चारों और है। इसलिए तो जैसे-जैसे तुम भीतर जाते हो तुम आनंदित अनुभव करते हो। क्योंकि तुम आनंद-शरीर के निकट पहुंच रहे हो। आनंद की पर्त पर पहूंच रहे हो। आनंद-शरीर तुम्हारी आत्मा के चारों और है। भीतर से बाहर की तरफ जाते हुए यह पहला और बाहर से भीतर की और जाते हुए यह अंतिम शरीर है। तुम्हारी मूल सत्ता, तुम्हारी आत्मा के चारों और आनंद की एक पर्त है, इसे आनंद शरीर कहते है।
पर्वत शिखर पर बैठे हुए अनंत आकाश को देखो। अनुभव करो कि सारा आकाश, सारा अंतरिक तुम्हारे आनंद-शरीर से भर रहा है। अनुभव करो कि तुम्हारा शरीर आनंद से भर गया है। अनुभव करो कि तुम्हारा आनंद शरीर फैल गया है और पूरा आकाश उसमे समा गया है।
लेकिन यह तुम कैसे महसूस करोगे? तुम्हें तो पता ही नहीं है कि आनंद क्या है तो तुम उसकी कल्पना कैसे करोगे? यह बेहतर होगा कि तुम पहले यह अनुभव करो कि पूरा आकाश मौन से भर गया है। आनंद से नहीं। आकाश को मौन से भरा हुआ अनुभव करो।
और प्रकृति इसमें सहयोग देगी। क्योंकि प्रकृति में ध्वनियां भी मौन ही होती है। शहरों में जो मौन भी शोर से भरा होता है। प्राकृतिक ध्वनियां मौन होती है। क्योंकि वे विध्न नहीं डालती, वे लयबद्ध होती है। तो ऐसा मत सोचो कि मौन अनिवार्य रूप से ध्वनि का अभाव है। नहीं, एक संगीतमय ध्वनि मौन हो सकती है। क्योंकि वह इतनी लयबद्ध है कि वह तुम्हें विचलित नहीं करती बल्कि वह तुम्हारे मौन को गहराती है।
तो ज तुम प्रकृति में जाते हो तो बहती हुई हवा के झोंके झरने, नदी या और भी जो ध्वनियां है वे लयबद्ध होती है, वे एक पूर्ण का निर्माण करती है, वे बाधा नहीं डालती है। उन्हें सुनने से तुम्हारा मौन और गहरा हो सकता है। तो पहले महसूस करो कि सारा आकाश मौन से भर गया है। गहरे से गहरे अनुभव करो कि आकाश और शांत होता जा रहा है। कि आकाश ने मौन बनकर तुम्हें घेर लिया है।
और जब तुम्हें लगे कि आकाश मौन से भर गया है। केवल तभी आनंद से भरने का प्रयास करना चाहिए। जैसे-जैसे मौन गहराएगा, तुम्हें आनंद की पहल झलक मिलेगी। जैसे जब तनाव बढ़ता है तो तुम्हें दुःख की पहली झलक मिलती है। ऐसे ही जब मौन गहराएगा तो तुम अधिक शांत, विश्रांत और आनंदित अनुभव करोगे। और जब वह झलक मिलती है तो तुम कल्पना कर सकते हो कि अब पूरा आकाश आनंद से भरा हुआ है।
‘अंतरिक्ष को अपना ही आनंद-शरीर मानो।’
सारा आकाश तुम्हारा आनंद-शरीर बन जाता है।
तुम इसे अलग से भी कर सकते हो। इसे पहली विधि के जोड़ने की जरूरत नहीं है। लेकिन परिस्थिति वही जरूरी है—अनंत विस्तार, मौन, आस-पास किसी मनुष्य का न होना।
आस-पास किसी मनुष्य के न होने पर इतना जोर क्यो? क्योंकि जैसे ही तुम किसी मनुष्य को देखोगें तुम पुराने ढंग से प्रतिक्रिया करने लगोगे। तुम बिना प्रतिक्रिया किए किसी मनुष्य को नहीं देख सकते। तत्क्षण तुम्हें कुछ नक कुछ होने लगेगा। यह तुम्हें तुम्हारे पुराने ढर्रे पर लौटा लाएगा। यदि तुम्हें आस-पास कोई मनुष्य नजर न आए तो तुम भूल जाते हो कि तुम मनुष्य हो। और यह भूल जाना अच्छा ही है। कि तुम मनुष्य हो। समाज के अंग हो। और केवल इतना स्मरण रखना अच्छा है कि तुम बस हो। चाहे यह न भी पता हो कि तुम क्या हो। तुम किसी व्यक्ति से, किसी समाज से, किसी दल से, किसी धर्म से जुड़े हुए नहीं हो। यह न जुड़ना सहयोगी होगा।
तो यह अच्छा होगा कि तुम अकेले कहीं चले जाओ। और इस विधि को करो। अकेले इस विधि को करना सहयोगी होगा। लेकिन किसी ऐसी चीज से शुरू करो जो तुम अनुभव कर सकते हो। मैंने लोगों को ऐसी विधि करते हुए देखा है जिनका वे अनुभव ही नहीं कर सकते। यदि तुम अनुभव की न कर सको, यदि एक झलक का भी अनुभव न हो, तो सारी बात ही झूठ हो जाती है।
एक मित्र मेरे पास आए और कहने लगे, ‘मैं इस बात की साधना कर रहा हूं कि परमात्मा सर्वव्यापी है।’
तो मैंने उनसे पूछा, ‘साधना कर कैसे सकते हो? तुम कल्पना क्या करते हो? क्या तुम्हें परमात्मा का कोई स्वाद, कोई अनुभव है। क्योंकि केवल तभी उसकी कल्पना कर पान संभव होगा। वरना तो तुम बस सोचते रहोगे कि कल्पना कर रहे हो और कुछ भी नहीं होगा।’
तो तुम कोई भी विधि करो, इस बात को स्मरण रखो कि पहले तुम्हें उसी से शुरू करना चाहिए जिससे तुम परिचित हो; हो सकता है कि तुम्हारा उससे पूरा परिचय न हो। परंतु थोड़ी सी झलक जरूर होगी। केवल तभी तुम एक-एक कदम बढ़ सकते हो। लेकिन बिलकुल अनजानी चीज पर मत कूद पड़ो। क्योंकि तब न तो तुम उसको अनुभव कर पाओगे, न उसकी कल्पना कर पाओगे।
इस लिए बहुत से गुरूओं ने, विशेषकर बुद्ध ने , परमात्मा शब्द को ही छोड़ दिया। बुद्ध ने कहा, ‘उसके साथ तुम साधना शुरू नहीं कर सकते। वह तो परिणाम है और परिणाम को तुम शुरू में नहीं ला सकते। तो आरंभ से ही शुरू करो, उन्होंने कहा, ‘परिणाम को भूल जाओ, परिणाम स्वयं ही आ जाएगा।’ और अपने शिष्यों को उन्होंने कहा, ‘परमात्मा के बारे में मत सोचो, करूणा के बारे में सोचो,प्रेम के बारे में सोचो।’
तो वे यह नहीं कहते कि तुम परमात्मा को हर जगह देखने की कोशिश करो, ‘तुम तो बस सबके प्रति करूणा से भर जाओ—वृक्षों के प्रति, मनुष्य के प्रति, पशुओं के प्रति। बस करूणा को अनुभव करो। सहानुभूति से भर जाओ। प्रेम को जन्म दो। क्योंकि चाहे थोड़ा सा सही, फिर भी प्रेम को तुम जानते हो। हर किसी के जीवन में प्रेम जैसा कुछ होता है। तुमने किसी से चाहे प्रेम न किया हो। पर तुम से तो किसी ने प्रेम किया होगा। कम से कम तुम्हारी मां ने तो किया ही होगा। उसकी आंखों में तुमने पाया होगा कि वह तुम्हें प्रेम करती है।’
बुद्ध कहते है, ‘अस्तित्व के प्रति मातृत्व से भर जाओ और गहन करूण अनुभव करो। अनुभव करो कि पूरा जगत करूणा से भर गया है। फिर