परमात्मा
प्रेम है एक अनुभूति है
भगवान का अर्थ किसी व्यक्ति से नहीं है ।
इसलिए यह न पूछें कि उसकी शक्ल क्या है और
वह कैसे रहता है ?
भगवान से अर्थ है एक अनुभूति का ।
कोई नहीं पूछता है कि प्रेम कैसा है और कहां रहता है ? तो क्यों पूछते हैं कि परमात्मा कैसा है
और कहां रहता है ।
प्रेम है एक अनुभूति ।
प्रेम की ही पराकाष्ठा परमात्मा की अनुभूति है ।
एक व्यक्ति से मैं प्रेम करूं , वह प्रेम कहलाता है
और अगर समस्त के प्रति मेरी वही भाव-दशा
हो जाय तो यह परमात्मा कहलाता है ।
प्रेम का परम विकास है ।
यह बच्चों जैसी बात कि ईश्वर बैठा हुआ है ऊपर
और दुनिया बना रहा है , दुनिया चला रहा है ,
यह बच्चों जैसी बातें छोड़े । यह बातें गईं ।
ये बातें छोड़े कि भगवान ने एक दिन तय किया
और कहा कि जाओ बन गई दुनिया और चलो ।
ये बच्चों जैसी बातें छोड़े ।
भगवान ने ऐसी किसी दुनिया को नहीं बनाया है
और भगवान और उसकी सृष्टि दो अलग बातें
नहीं हैं । क्रिएटर और क्रिएशन दो अलग बातें नहीं
हैं । क्रिएटिविटी सृजनात्मक ऊर्जा जब अप्रगट
होती है तो उसे हम परमात्मा कहते हैं और जब
प्रगट होती है तो उसे हम सृष्टि कहते हैं ।
जब हृदय में कोई गीत उठता है तो वह परमात्मा
है। और जब वह वाणी से प्रगट हो जाता है तो
वह सृष्टि है ।
यह समस्त सृष्टि , यह समस्त सत्ता ,
यह पूरा एग्जिस्टेंस किसी बहुत अन्तर-निनाद
को अपने भीतर लिए है । कोई गीत , कोई संगीत
कोई आनंद वह फूंकना चाहती है ।
वह प्रगट हो रहा है । वही प्रगटीकरण यह संसार
है । संसार और परमात्मा दो विरोधी बातें नहीं हैं ।
परमात्मा का ही प्रकार संसार है और जो लोग
प्रेम का अनुभव करेंगे , वह सब तरफ उस परमात्मा की ' छवि को ' सब तरफ अनुभव करेंगे ।
सब तरफ जो है , वही है । लेकिन उसे जानने के
लिए , उसे पाने के लिए खुद के भीतर ' न कुछ '
जानना पड़ेगा । शून्य हो जाना पड़ेगा ।
ज्ञान को छोड़ दो और प्रेम को विकसित होने दो ।
जहां ज्ञान का तट छूटता है और प्रेम के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं , वहीं वह संगीत पैदा होता
है जो समस्त के भीतर छिपा है , जो और खुद के
प्राणों को समस्त से जोड़ देता है , वह अनुभव ही
परमात्मा है ।