हम बहुत रोए किसी त्यौहार से होकर जुदा
जी सका है कौन अपने प्यार से हो कर जुदा।..
क़त्ल तो बस क़त्ल है इसके सिवा कुछ भी नहीं,
आप भी कुछ सोचिए तलवार से होकर जुदा ।
हो नहीं अहसास तो कुछ ठीक से होता नहीं
शब्द मिटटी हैं किसी फ़नकार से होकर जुदा ।
हो ग़ज़ल अच्छी मगर श्रोता अच्छे चाहिए
क़द्र हीरे की है कब बाज़ार से होकर जुदा ।
स्वर्ण-मुद्राएें हमारी भी हथेली चूमतीं7
पर ग़ज़ल कहते रहे दरबार से होकर जुदा।
लोग पिछड़े हैं वही इस ज़िन्दगी की दौड़ में,
वो जो दौड़े वक़्त की रफ़्तार से होकर जुदा।
जो नहीं मिलती रुकावट मैं नहीं बढ़ता कभी
सीढ़ियाँ बनतीं नहीं दीवार से होकर जुदा ।
रोज लिखते ही रहे अर्णव नहीं सोचा कभी
सुर्ख़ियाँ बेकार हैं अख़बार से होकर जुदा
*डा० मनोज शुक्ल अर्णव*