हिंदी साहित्य जगत को अपनी मौलिक कृतियों से समृद्ध करने वाले प्रयोगधर्मी जीवनशिल्पी साहित्यकार एवं चिन्तक रामप्रसाद विद्यार्थी ‘रावी’ के निधन को विगत सितम्बर माह को बीस वर्ष पुरे हो चुके हैं. ठीक बीस साल पहले 09सितम्बर 1994 को रावी ने आगरा (सिकंदरा) के निकट अपनी कर्मस्थली (नयानगर,कैलास आश्रम) में भौतिक देह का परित्याग कर सूक्ष्मलोक में प्रवेश कर लिया था.
मानवीय दर्शन एवं मानवीय संबंधों की जन्मजन्मान्तर व्यापी अखंडता के पक्षधर रावी प्रयोगधर्मी साहित्यकार होने के साथ-साथ बहुमुखी प्रतिभा के भी धनी थे, मानवीय जीवन और मानवीय सौन्दर्य के घोर उपासक होने के कारण रावी मानव में अन्तर्निहित सौन्दर्य के कुशल पारखी एवं उद्घाटक भी थे. रावी का सम्पूर्ण जीवन और साहित्य मानवीय चेतना के उन्नयन एवं विकास को समर्पित था.
रावी केवल साहित्यकार ही नहीं थे अपितु साहित्यकार से कहीं अधिक ऊँचे और भी बहुत कुछ उनमें निहित था. अगर हम केवल उन्हें साहित्यकार,चिन्तक मानकर चलें तो यह रावी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का दशमांश भी नहीं होगा. रावी एक महान जीवनशिल्पी भी थे. समाज का नवीन सर्जन करने वाले,सामाजिक नवनिर्माण हेतु नए मानव की रचना को समर्पित इस महान जीवनशिल्पी का जन्म 16 दिसंबर 1911 को बुंदलखंड के पहाड़ी कस्बे कुलपहाड़ जिला हमीरपुर में हुआ था. इनके पिता श्री शीतल प्रसाद वहां तहसील में अहलकार थे. अपने तीन भाई और चार बहनों में ये सबसे छोटे थे. चौबीस वर्ष की आयु में रावी अगर आ गए. इस बीच सन् 1947 में रावी को सिकंदर के निकट कैलास आश्रम ने आकृष्ट किया तो वहीं रहने लगे. रावी ने सामाजिक रुढियों को तोड़कर अंतर्जातीय विवाह भी किया,परन्तु उनका दाम्पत्य जीवन अधिक साथ नहीं चल पाया,मात्र 12 वर्ष साथ रहकर पत्नी लीलावती ने 29 मई 1959 को देह त्याग कर रावी को साहित्य साधना हेतु स्वतंत्र कर दिया.
रावी की स्कूली शिक्षा विशेष नहीं रही, उन्होंने हाईस्कूल तक ही शिक्षा ग्रहण की परन्तु अपने अध्ययन और स्वाध्याय को जीवन पर्यन्त जारी रखा.
मौलिक साहित्य के क्षेत्र में रावी का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है. रावी के विभिन्न कार्यों एवं प्रयोगों में साहित्य ही ऐसी निधि है जो रावी को लम्बे समय तक चिर स्थाई रख सकेगी. लगभग सभी विधाओं में रावी ने अपनी लेखनी का प्रयोग किया. उनकी सैकड़ों रचनाएँ छोटे बड़े विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी हुई हैं. अपने जीवनकाल में रावी ने लगभग तीस से अधिक पुस्तकें हिंदी साहित्य जगत को समर्पित की है.
अपनी लेखन यात्रा का आरम्भ रावी ने इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका द्वारा किया. उनकी प्रथम कहानी ‘अपमानित का मान’ सन् 1929 में इसी पत्रिका में प्रकाशित हुई, इस दौरान कई छुट-पुट रचनाएँ ही निकलती रहीं लेकिन साहित्य सर्जन की वास्तविक यात्रा सन् 1937 में गद्यकाव्य संग्रह ‘पूजा’ के प्रकाशन के साथ आरम्भ हुआ. ‘पूजा’ के अतिरिक्त गद्यकाव्य की दूसरी पुस्तक ‘शुभ्रा’ सन्1941 में प्रकाशित हुई.
रावी का जीवन लेखन के साथ साथ प्रयोगों का भी रहा है. सन् 1943 से 46 तक रावी ने पुस्तकालय व्यवसाय को अपनाया. इस दौरान रावी ने आठ आने से एक पुस्तकालय की स्थापना आगरा नगर में की. जिसका उद्देश्य घर–घर पाठकों तक पुस्तकें पहुँचाना था. तीन वर्ष तक पुस्तकालय संचालन कर रावी ने नगर के ही एक साहित्य प्रेमी सेठ स्व० रतनलाल जैन को दो हजार में पुस्तकालय बेचकर स्वयं घर-घर जाकर पुस्तकें बेचने का कार्य आरम्भ कर दिया था. सर पर पुस्तकों से भरी टोकरी लिए रावी शहर के गली मुहल्लों में घुमने लगे. इस कार्य से रावी को एक और जहाँ नए नए अनुभव प्राप्त हुए वहीं दूसरी और जनसंपर्क से उनका विशाल परिचय श्रोत भी बन गया. इन अनुभवों को रावी ने कलकत्ते से प्रकाशित ‘विशाल भारत’ मासिक पत्रिका में कई अंकों में धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया. इस डायरी के प्रकाशन से रावी की ख्याति बहुत अधिक बढ़ गई थी. बाद में यह ‘बुकसेलर की डायरी’ के नाम से पुस्तकाकार रूप में ‘इंडियन प्रेस’.प्रयाग ने सन् 1947 में प्रकाशित की.
इस बीच रावी ने घर घर जाकर कहानियां सुनाने का भी कार्यक्रम भी बनाया. सन् 1954 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार की संचालिका स्व० रमा जैन ने 150 रुपये मासिक पर एक वर्ष तक रावी को अपनी पुस्तक ‘हृदयों की हाट’ वार्ता को भारत भर के स्कूल कॉलेजों में सुनाने के लिए दिए थे. तब रावी देश के विभिन्न स्थानों पर गए थे. इस दौरान ‘हृदयों की हाट’ के अलावा रावी की अनेक पुस्तकें प्रकाशित चुकी थीं. प्रथम कहानी संग्रह ‘किसके लिए’ तथा दूसरा कहानी संग्रह ‘पत्नियों का द्वीप’ सन् 1948 में प्रकाशित हुई. इसी वर्ष समाज चिंतन की पुस्तक ‘नया समाज:नया मानव’ भी प्रकाशित हो गयी. अगले ही वर्ष उनका तीसरा कहानी संग्रह ‘उपजाऊ पत्थर’ भी छपकर पाठकों के पास पहुँच गयी जो बाद में मद्रास विश्वविद्यालय के इंटरमीडिएट पाठ्यक्रम में भी सामिल हो गया. इसके अतिरिक्त ‘प्रबुद्ध सिद्धार्थ’ नाटक सन् 1951 में प्रकाशित हो गयी. यह नाटक भी उत्तर प्रदेश इंटरमीडिएट कक्षाओं के पाठ्यक्रम में पाठ्य पुस्तक के तौर पर कई वर्षों तक निर्धारित रहा.
‘नए नगर की कहानी’ रावी का विशिष्ट उच्चकोटि का उपन्यास है. अब तक इसके कई संस्करण निकल चुके हैं. इस नितांत मौलिक उपन्यास में रावी ने नए नगर और नए समाज की कल्पना को शब्दों द्वारा साकार किया है. आज के साधारण,अर्धविकसित और दुर्बल चरित्र वाले समाज में से किस प्रकार एक नए,सुखी समाज का जन्म हो सकता है यही इस उपन्यास में है. आगे चलकर यही उपन्यास यथार्थ रूप में ‘नयानगर’ एवं ‘मैत्रीक्लब’ का आधार बना.
हिंदी साहित्य जगत ने रावी को अपेक्षित सम्मान नहीं दिया. इसका कारण यह भी है कि हिंदी जगत अभी तक रावी के साहित्य का उचित मूल्यांकन करने में असमर्थ रहा है. इसके वावजूद भी रावी की कई पुस्तकें पुरस्कृत एवं प्रशंसित भी हुई हैं. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा रावी की दो पुस्तकों को पुरस्कृत भी किया है. सन् 1954 में कहानी संग्रह ‘कहानीकार’ एवं सन् 1956 में निबंध संग्रह "क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ” पुरस्कृत हुईं. इनके अतिरिक्त समाज चिंतन की पुस्तक ‘वीरभद्र की गोष्ठी’ भी पुरस्कृत रचना है.
लघुकथाकार के रूप में रावी हिंदी के उन गिने-चुने लघुकथाकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने साहित्य की एक नयी विधा ‘लघुकथा’ को अपनी सैकड़ों लघुकथाओं से सम्रद्ध कर उस हिंदी साहित्य में उचित स्थान प्रदान किया है. भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली ने रावी के दो लघुकथा संग्रह प्रकाशित किये. ‘मेरे कथागुरु का कहना है’ शीर्षक लघुकथा संग्रह में लगभग डेढ़ सौ लघुकथाएं दो खण्डों में प्रकाशित हैं. इनके अतिरिक्त ‘रावी की परवर्ती लघुकथाएं’ संग्रह में भी रावी की उत्कृष्ट लघुकथाएं संग्रहित हैं.
कहानियां एवं लघुकथाएं लिखने की रावी की अपनी विशिष्ट शैली है. पौराणिक आख्यान शैली में लिखी ये कहानियां ऊपर से सरल व रोचक लगती हैं लेकिन इनमें अन्तर्निहित सन्देश अत्यंत गूढ़ है. प्रत्येक कहानी और लघुकथा कुछ ना कुछ सन्देश अथवा आमंत्रण देती हुई प्रतीत होती हैं. जीवन की सार्थकता और रोचकता के जो दृश्य एवं दृष्टिकोण उनकी कहानियों में है वह विश्व के किसी भी साहित्य में दुर्लभ हैं.
रावी के कुछ कार्यकलापों रहस्यमय भी समझा गया था. कनु एवं कनिष्ठतनु के नाम से वे सूक्ष्म जगत के कुछ ‘सीनियर्स’ से जुड़े हुए थे. रावी के अन्तरंग मंडली के इन ‘सीनियर्स’ में डैडी,वीरभद्र,नीतराग,त्रिलोचन,हिमदा,स्नेहशिखा,वारिद आदि प्रमुख हैं. ये ही आगे रावी की ‘वीरभद्र की गोष्ठी’, ‘नए नगर की कहानी’, ‘पचास पर्चे इराक्लब के’ आदि पुस्तकों में प्रमुख पात्र बनाकर निकले हैं. हालाँकि इन ‘सीनियर्स’ का कोई दैहिक अस्तित्व नहीं है. लेकिन रावी की पुस्तकों एवं ‘नए विज्ञापन’ पत्र में इनकी अनेक रचनाएँ देखने को मिलती रही हैं. स्नेहशिखा की अनेक अंगरेजी में उत्कृष्ट कवितायें रावी के लेखनी के माध्यम से ही निकली हैं.
नीतराग वातायन कृत ‘उच्चतर कामविज्ञान के सूत्र’ लघु पुस्तक को रावी ने अपने जीवन की महत्वपूर्ण पुस्तक माना है. इस पुस्तक में मात्र नौ सूत्र दिए गए है. परन्तु इन सूत्रों का महत्त्व व्यापक है. रावी का कहना है कि ये सूत्र उन्हें मनस्तरीय तरंगों (टेलीपैथी) द्वारा प्राप्त हुए हैं. इन सूत्रों में नीतराग ने नारी पुरुष युग्म के उर्ध्वांग मिलन (आलिंगन एवं चुम्बन) के महत्त्व को प्रसारित किया है रावी का मानना है कि यौनरति से ऊपर उठकर आलिंगन एवं चुम्बन के द्वारा भी नारी पुरुष पर्याप्त जीवन पोषक तत्व व उत्तरोत्तर तृप्तिकारक सुख को प्राप्त कर सकते हैं. इस पुस्तक में रावी केवल भाष्यकार एवं प्रस्तोता के रूप में सामने आये हैं. अपने चिंतन एवं लेखन को यथार्थ रूप में परिणित करने के लिए प्रयोगधर्मी रावी ने कई प्रयोग किये. जिनमें मैत्रिक्लब,नयानगर,अग्रसर नैतिक काम विज्ञान संस्थान,जीवन प्रवेश विद्यालय आदि प्रमुख हैं.
मैत्रीक्लब की विधिवत स्थापना रावी ने कुछ मित्रों को लेकर 12 जुलाय 1957 में की. कैलास आश्रम में गठित इस मैत्रीक्लब संस्था से देश के अनेक प्रख्यात बुद्धिजीवी जुड़े. जिनमें अनेक प्रसिद्द साहित्यकार,पत्रकार,सम्पादक,प्रशासनिक अधिकारी,राजनीतिज्ञ हैं. पूर्व में अमर उजाला दैनिक के संस्थापक स्व० डोरीलाल अग्रवाल,स्व० जैनेन्द्र कुमार,स्व०क्षेमचंद ‘सुमन’,पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश’,बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे प्रबुद्ध साहित्यकार जीवन पर्यंत मैत्रीक्लब के सदस्य बने रहे. बाद के वर्षों में भी इस क्लब में काका हाथरसी,विष्णु प्रभाकर,आचार्य सर्वे,अखिल विनय,कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, ‘पद्मश्री’ गोपालदास ‘नीरज’, बुधमल शामसुखा, राजेंद्र अवस्थी, डा० महाराज कृष्ण जैन आदि मनीषी भी जुड़े. मैत्रीक्लब की गोष्ठियां को रावी हर वर्ष देश के विभिन्न स्थानों में नियमित रूप से आयोजित भी करते रहे. उनके निधन के बाद अब मैत्रीक्लब क्लब की गोष्ठियों में शिथिलता आ गयी है. मूलरूप से इस संस्था का उद्देश्य समाज में एक दुसरे के सुख-दुःख तथा आवश्यकताओं की जानकारी एवं पारस्परिक सहज सहयोग के द्वारा सच्चे एवं गहरे मानवीय संबंधों का निर्माण करना है.
नए नगर का निर्माण भी रावी का एक विशिष्ट आयोजन रहा है इसकी आधार-शिला कैलास के निकट ही एक भूखंड(नयानगर) पर रखी जा चुकी है. जीवन निर्वाह की चिंताओं से मुक्त,मधुरतम मानवीय संबंधों और जीवन के उच्चतम विकास के साधन एवं सुविधाओं से संपन्न पचपन परिवारों को बसाने का रावी का सपना रावी के देहावसान से प्रभावित हो गया है. रावी का यह सपना कब और कैसे पूरा होगा ये उनके मित्रों के लिए अब चिंता की बात है. क्लब के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए 49 वर्ष पूर्व सन1964 में रावी के संपादकत्व में ‘नए विज्ञापन’ मासिक पत्र का भी प्रकाशन किया गया. समाज एवं मानव की साधारण तथा असाधारण इच्छाओं,आवश्यकताओं का विज्ञापक और पूरक यह मासिकी अपने आप में हिंदी की एकमात्र अनोखी पत्रिका है. साहित्य में ‘मनोविज्ञापन’ नाम की एक नयी विधा का विकास रावी ने इसी पत्रिका के माध्यम से किया था.
रावी का जीवन दर्शन मानव मानव का प्रेम तथा मानवीय संबंधों पर आधारित है. उनका विश्वास है कि दुनिया में वह सब कुछ है जो मानव की प्रगति और सुख सुविधाओं के लिए आवश्यक है. कोई भी दो मनुष्य यदि एक दुसरे के जीवन और ह्रदय में घुसकर अपनी इच्छा,आवश्यकता और दुसरे की सुविधा के अनुसार खुलकर लेन देन कर सके तो उन दोनों की सुख समृद्धि में वृद्धि हो सकती है. षड्बिन्दु वृत्त योजना के द्वारा रावी ने अनेक मित्रों को इस दिशा में सफलता पूर्वक गहन प्रयोग के लिए अग्रसर भी किया है.
रावी कभी पलायनवादी नहीं रहे और ना ही निराशावाद उन्हें प्रभावित कर पाया. रावी के साहित्य में वर्तमान कृत्रिम जीवन एवं कथित शिष्टाचार के संबंधों के प्रति समग्र क्रांति दृष्टिगोचर होती है. वे सरल,सहज,मधुरतम प्राकृतिक जीवन की पवित्रता के उपासक रहे हैं. जीवन को सहज रूप में जीने वाले रावी का सम्पूर्ण जीवन भले ही धनाभाव से ग्रसित रहा हो, लेकिन आध्यात्मिक सुखों के विशाल खजाने की चाबी सदा उनके पास रहने के कारण बहुतो को उनसे इर्ष्या ही रही है.
बहुमुखी,बहुआयामी प्रतिभा के धनी रावी को आज भी हिंदी जगत उपेक्षित ही कर रहा है. जबकि रावी का अधिकाँश साहित्य उच्चकोटि का विश्वस्तरीय है. यद्यपि रावी को कोई बहुत बड़ा पुरस्कार अथवा सम्मान नहीं मिला हो. वैसे भी साहित्य में राजनीति के प्रवेश ने सम्मानों को प्रभावित करना आरम्भ कर दिया है. लेकिन पाठकों के बीच रावी का सम्मान सर्वोच्च रहा है. इस बात को बड़े बड़े पुरस्कार प्राप्त साहित्कार भी मानते रहे हैं. हिंदी जगत को चाहिए कि रावी के व्यक्तित्व और कृतित्व का उचित मूल्यांकन कर उन्हें साहित्य जगत में उचित स्थान दिलाये. अगर हिंदी जगत रावी का उचित मूल्यांकन करने में असमर्थ हुआ तो भविष में आने वाली पीढियां अपने एक महान जीवन-शिल्पी,चिन्तक,कथाकार को विस्मृति के गर्त में धकेल देगी निश्चय ही यह स्थिति हिंदी जगत के लिए अत्यंत दुर्भाग्य की बात होगी.
-सुनील अनुरागी
पोस्ट बॉक्स न० -12
कोटद्वार,उत्तराखंड-२४६१२१