दिन उगा सूरज की बत्ती जल गई
रात की काली स्याही ढल गई
दिन उगा सूरज की बत्ती जल गई
रात की काली स्याही ढल गई
सो रहे थे बेच कर घोड़े, बड़े
और छोटे थे उनींदे से खड़े
ज़ोर से टन-टन बजी कानों में जब
धड-धड़ाते बूट, बस्ते, चल पड़े
हर सवारी आठ तक निकल गई
रात की काली ...
कुछ बुजुर्गों का भी घर में ज़ोर था
साथ कपड़े, बरतनों का शोर था
माँ थी सीधी ये समझ न पाई थी
बाई के नखरे थे, मन में चोर था
काम, इतना काम, रोटी जल गई
रात की काली ...
ढेर सारे काम बाकी रह गए
ख्वाब कुछ गुमनाम बाकी रह गए
नींद पल-दो-पल जो माँ को आ गई
पल वो उसके नाम बाकी रह गए
घर, पती, बच्चों, की खातिर गल गई
रात की काली ...
सब पढ़ाकू थे, में कुछ पीछे रहा
खेल मस्ती में मगर, आगे रहा
सर पे आई तो समझ में आ गया
डोर जो उम्मीद की थामे रहा
जंग लगी बन्दूक इक दिन चल गई
रात की काली ...