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2 किताबें
जहाँ बिकता हुआ ईमान होगाबगल में ही खड़ा इंसान होगाहमें मतलब है अपने आप से हीजो होगा गैर का नुक्सान होगादरिंदों की अगर सत्ता रहेगीशहर होगा मगर शमशान होगादबी सी सुगबुगाहट हो रही हैदीवारों में किसी का कान होगाबड़ों के पाँव छूता है अभी तकमेरी तहजीब की पहचान होगालड़ाई नाम पे
इंसानियत का झंडा कब से यहाँ खड़ा है ...बीठें पड़ी हुई हैं, बदरंग हो चुका है इंसानियत का झंडा, कब से यहाँ खड़ा हैसपने वो ले गए हैं, साँसें भी खींच लेंगेइस भीड़ में नपुंसक, लोगों का काफिला हैसींचा तुझे लहू से, तू
उग रहे बारूद खन्जर इन दिनों हो गए हैं खेत बन्जर इन दिनोंचौकसी करती हैं मेरी कश्तियाँहद में रहता है समुन्दर इन दिनोंआस्तीनों में छुपे रहते हैं सबलोग हैं कितने धुरन्धर इन दिनोंआदतें इन्सान की बदली हुईंशहर में रहते हैं बन्दर इन दिनोंआ गए पत्थर
पुरखों का घर छूट गयाअम्मा का दिल टूट गयादरवाज़े पे दस्तक दीअन्दर आया लूट गयामिट्टी कच्ची होते हीमटका धम से फूट गयामजलूमों की किस्मत हैजो भी आया कूट गयासीमा पर गोली खानेअक्सर ही रंगरूट गयापोलिथिन आया जब सेबाज़ारों से जूट गया ...
वो एक ऐहसास था प्रेम का जिसकी कहानी है ये ... जाने किसलम्हे शुरू हो के कहाँ तक पहुंची ... क्या साँसें बाकी हैं इस कहानी में ... हाँ ... क्या क्या कहा नहीं ... तो फिर इंतज़ार क
आशा की आहट का घोड़ासरपट दौड़ रहासुखमय जीवन-हार मिलासाँसों में महका स्पंदनमधुमय यौवन भार खिलानयनों में सागर सनेह कासपने जोड़ रहा सरपट दौड़ रहा ...खिली धूप मधुमास नयाखुले गगन में हल्की हल्कीवर्षा का आभास नयामन अकुलाया हरी घास परझटपट पौड़ रहासरपट दौड़ रहा ...सागर लहरों क
धड़ धड़ धड़ बरसा सावनभीगे, फिसले कितने तनघास उगी सूखे आँगनप्यास बुझी ओ बंजर धरती तृप्त हुईनीरस जीवन से तुलसी भी मुक्त हुई,झींगुर की गूँजे गुंजनघास उगी ...घास उगी वन औ उपवनगीले
धूल कभी जो आँधी बन के आएगीपल दो पल फिर आँख कहाँ खुल पाएगीअक्षत मन तो स्वप्न नए सन्जोयेगाबीज नई आशा के मन में बोयेगाखींच लिए जायेंगे जब अवसर साधनसपनों की मृत्यु उस पल हो जायेगीपल दो पल फिर ...बादल बूँदा बाँदी कर उड़ जाएँगेचिप चिप कपडे जिस्मों से जुड़ जाएँगेचाट के ठेले जब
मैं कई गन्जों को कंघे बेचता हूँएक सौदागर हूँ सपने बेचता हूँकाटता हूँ मूछ पर दाड़ी भी रखता और माथे के तिलक तो साथ रखता नाम अल्ला का भी शंकर का हूँ लेताहै मेरा धंधा तमन्चे बेचता हूँएक सौदागर हूँ ...धर्म का व्यापार मुझसे पल रहा हैदौर अफवाहों का मुझसे चल रहा है यूँ नहीं
घर मेरा टूटा हुआ सन्दूक हैहर पुरानी चीज़ से अनुबन्ध है पर घड़ी से ख़ास ही सम्बन्ध हैरूई के तकिये, रज़ाई, चादरें खेस है जिसमें के माँ की गन्ध हैताम्बे के बर्तन, कलेंडर, फोटुएँजंग लगी छर्रों की इक बन्दूक हैघर मेरा टूटा ..."शैल्फ" पे चुप सी कतारों में खड़ी अध्-पड़ी
मूल मन्त्र इस श्रृष्टि का ये जाना हैखो कर ही इस जीवन में कुछपाना हैनव कोंपल उसपल पेड़ों पर आते हैंपात पुरातन जड़से जब झड़ जाते हैं जैविक घटकोंमें हैं ऐसे जीवाणू मिट कर खुद जोदो बन कर मुस्काते हैं दंश नहीं मानो,खोना अवसर समझो यही शाश्वतसत्य
दिन उगा सूरज की बत्ती जल गईरात की काली स्याही ढल गईदिन उगा सूरज की बत्ती जल गईरात की काली स्याही ढल गईसो रहे थे बेच कर घोड़े, बड़ेऔर छोटे थे उनींद
ठँडी मीठी छाँवकभी तीखा “सन” है जीवन आपा-धापी“एजिटे-शन” है इश्क़ हुआ तो बसझींगालाल
लिखे थे दो तभीतो चार दाने हाथ ना आएबहुत डूबेसमुन्दर में खज़ाने हाथ ना आएगिरे थे हम भीजैसे लोग सब गिरते हैं राहों मेंयही है फ़र्क बसहमको उठाने हाथ ना आएरकीबों ने तोसारा मैल दिल से साफ़ कर डाला समझते थे जिन्हेंअपना मिलाने हाथ ना आएसभी बचपन कीगलियों में गुज़र कर देख आया हूँकई कि
यूँ ही मुझको सता रही हो क्या तुम कहीं रूठ कर चली हो क्या उसकी यादें हैं पूछती अक्सर मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या ज़िन्दगी मुझसे अजनबी हो क्या वक़्त ने पूछ ही लिया मुझसे बूढ़े बापू की तुम छड़ी हो क्या तुमको महसूस कर रहा हूँ मैं माँ कहीं आस पास ही हो क्या दर्द से पूछने लगी खुशिय