ब्रज की गोपियाँ और कृष्ण
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जाना ही था तो क्यों जोड़ा प्रेम बंधन
उनकी ही श्यामल छवि से सजा मन
कैसे जियें जाते जाते बता जाते ,
हम भी उनकी तरह आगे बढ़ जाते ।
यमुना तट के कुंजो में उनका ही ध्यान,
चेतना में समाहित मुरली की तान ,
मूक पशु,पक्षी गाय मयूर हिरण
खोजता है उन्ही को ब्रज का कणकण
बरसाने की राधिका और गोपियों की प्रीति ,
इस अनन्य प्रेम की कृष्ण को प्रतीति
एक ओर सम्मुख राजनीति के छल छंद,
कृष्ण के हृदय में था प्रेम अनिंद्य ।
कभी पास होकर भी दूरियाँ अनंत
कभी दूर होकर भी प्रेम का आदि ना अंत ,
हँस हँस कर होता है प्रेम का शुभारंभ
वियोग पीड़ा के साथ छोड़ जाता निरालम्ब
मिलन और वियोग की एकरूपता
मानो जीव की ब्रह्म से मिलन की अधीरता
भोली भाली गोपियों की गहन चेतना
बन गई प्रेम की उच्च संचेतना ।
समन्त पंचक तीर्थ में एकत्रित यदुकुल
नन्द यशोदा संग आई गोपियाँ व्याकुल
मिलन के अतीव मार्मिक क्षण ,
गोपियों के अश्रुओं से भीगे कृष्ण चरण
प्रिय सखियों ! शिरोधार्य है प्रेम की उच्चता
धारण करूँगा सदा भाव की उत्कृष्टता
अनुराग की अतीन्द्रिय अपूर्व संपदा
भाव भूमि वृन्दावन में विराजेगी सर्वदा
बीत जाए चाहे कितने युग युगांतर
अनंत प्रेम सौरभ से सुरभित रहेगा निरंतर
मेरे ही रूप से होंगे प्रतिविम्बित
यमुना की लहरें ,ब्रज रज ,गोवर्धन पर्वत
ब्रज की अधिष्ठात्री प्रिया राधिका
मेरे नाम से पहले स्मरण तुम्हारे नाम का
तुम्हारे अपूर्व प्रेम से तुम्हारा श्याम समर्थ
राह दिखा तुम्हारे नाम का अर्थ ।