*नहीं रही #सहनशीलता **
पाँच दशकों में बदली जीवन की परिदृष्यता ,
सुख साधन ,चौपहिया वाहन की सहज उपलब्धता ,
विलास वैभव अतिरेक, पर्यटन की पूर्ण स्वतंत्रता ,
अब नहीं दिखाई देती कहीं लोगों में #सहनशीलता ।
ना जाने किस लक्ष्य को पाने की प्रतियोगिता ,
अतीत के गर्भ में सो गई सहज संवेदनशीलता ,
प्रदूषित भावों विचारों से आहत मानवीयता ,
स्वतंत्रता के दुरुपयोग से जनित उन्मुक्तता ।
स्मरण है वो संयुक्त परिवारों की प्यारी सहभागिता ,
वृक्ष के तने से सशक्त दादा दादी की स्वीकार्यता ,
सुदीर्घ जीवन में जिए अनुभवों की प्रमाणिकता ,
स्व व्यक्तित्व से कुटुंब को बांधे रखने की समर्थता ।
घर के बेटों की सरल संस्कार युक्त विनम्रता ,
कुल वधुएं मानो कुटुंब वृक्ष की मनोरम लता ,
छोटे से आँगन में नित्य जीवन की उत्सवधर्मिता,
पंछियों से बालकों की हँसी से घर चहचहाता।
शाखों पर नव पल्लव पुष्पों से शिशुओं की कोमलता ,
भोली नीली आखों से झाँकते मानो स्वयं परमपिता ,
देवरानियों जिठानियों के बीच विविधता में एकता ,
तेरे मेरे के भाव से पृथक कुटुंब की सामंजस्यता ।
खेल खेल में बालकों के मन में उपजी सामाजिकता ,
अपनों के संग ही जीवन की संतुष्टि मय सार्थकता ,
छोटे बड़ों के लिहाज की परंपरा जन्य सौम्यता l
पल्लवित ,पुष्पित होती संस्कृति सभ्यता ।
अब हर ओर एक बैचैनी है ,घेरती है व्यग्रता ,
बिखराव का शिकार बनी पारिवारिकता ,
अपनों के बीच हो गई द्वेष युक्त प्रतिद्वंदिता,
बस अब कहीं नहीं रही लोगों में #सहनशीलता !
डॉ नीलम सिंह