कैसे भूल जाऊं भला ससुराल का आंगन ,
तुम संग आई थी जहां नतमुख मेरे साजन ,
जीवन को मिला जो विस्तार मंगल मय ,
आई थी स्वप्न सजा ,तुम संग हो जाऊं लय ।
ज्यों साक्षी बनी जनक पुर की पुष्प वाटिका ,
प्रेम भाव की उच्चता से बंध गया मन राम सिया का ,
प्रेम के बंधनों में डूब गया रुक्मिणी का उर ,
हे गोविंद ! ले जाओ मुझे शिशुपाल से बचा कर।
शिव भोले को पाने ज्यों मां गौरा सा मन ,
बैरागी ,बाघंबर ,त्रिशूल धारी के लिए तपस्या मग्न
आपसी प्रेम कब बन जाता है अध्यात्म भाव ,
दिन रैन सताने लगा मानो जीवन में अभाव ।
हृदय के उपवन में मानो महकती सुगंध ,
डोले वन वन हिरण खोजता कस्तूरी गंध ,
कैसे कहूं ,किस से कहूं लज्जा का आवरण ,
मां सुनो !चुरा ले गया अनजान तेरी बेटी का मन ।
फूटा ना एक शब्द किए जाने कितने जतन ,
अंतर्तम में गूंजती रात दिन एक ही लगन ,
दूर ही दूर से मीरा मानो कुंज बिहारी की दीवानी ,
बिन कहे सुने ही जान गए हृदय की बानी।
नही होता प्रेम कभी एक तरफा कहते है ज्ञानी,
प्रारंभ होती वहीं,जहां छूटी पिछले जन्म की कहानी ,
यह सत्य है अटूट , सच्चा प्रेम होता है दैवीय,
आवा गमन से अछूता पावन और ईश्वरीय !!!