कृषक
स्वच्छ उर तेरा प्रत्यक्ष रूप लक्ष्य का ,
लक्ष्य के समक्ष द्रढ़ गिरीश सा खड़ा हुआ |
मानता है लोहा , काम तेरे समक्ष आ ,
काम को निगलता अग्नि जैसा बना हुआ |
छल अरु प्रपंच त्यागी त्यागता शरीर से , सारे बिशाल सुख प्रेम सा भरा हुआ
कृषक का सफल जन्म मानव जगत हित ,
अन्न दे जिलाता दूत ईश का बना हुआ |
अन्न के कोष को रूप दे बिशालकाय ,
दुग्ध , घी मक्खन लौ दीप सा बढ़ाता जा |
धाम ये धरा के वृक्ष कल्प का प्रत्यक्ष रूप ,
देकर अनीह जन तम को मिटाता जा |
तेरी धवल कीर्ति गाता निषाद कवि ,
कृषिधर अमल - कीर्ति स्वबल तू बढ़ाता जा |
धन्य हो कृषक – बंधु धर्म के पुनीत रूप ,
दान , मान , गरिमा की सरिता बहाता जा |