इश्क तेरा सर्दी की गुनगुनी धूप जैसा
जो बमुश्किल निकलती है
पर जब जब मुझ पर पड़ती है
मुझे थोडा और तेरा कर देती है
मैं बाहें पसारे इसकी गर्माहट को
खुद में समा लेती हूँ
इसकी रंगत न दिख जाये
चेहरे में कही
इसलिए खुद को तेरे सीने
में छुपा लेती हूँ
आज इस बर्फीली ठंढ ने
सिर्फ धुंध का सिंगार सजा
रखा है
न जाने किस रोज़ बिखरेगी
वो गुनगुनी धूप अब फिर
जिसे घने कोहरे ने छुपा रखा है
यूँ उस गुनगुनी धूप के
न होने पर
शाम होते ही हाथ पैर
कुछ नम से हो जाते हैं
फिर थोड़ी गर्माहट पाने
हम बीते लम्हों को
सुलगाते हैं , तब जा कर कही
उस ठिठुरती घडी में
कुछ आराम पाते हैं
कभी वो सूरज धुंधला सा सही
पर रोज़ निकला करता था
और उसकी किरणों का स्पर्श
सारी रात बदन में गर्माहट सा
बना रहता था
मुददतें हुई उस खिली
धूप का एहसास भुलाये हुए
तकिये चादर बालकनी में
डाल उस धूप में नहाये हुए
तुम एक बार फिर वही धूप बन,
मुझ पर फिर बिखरने आ जाओ
और इन साँसों की कपकपाहट
को अपने आलिंगन से मिटा जाओ
जो जब जब मुझ पर पड़ती है
मुझे थोडा और तेरा कर देती है
अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”
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