धर्म-जाति से परे हिंदी कविता एक भयावह महामारी पर
लिखना नहीं चाहती थी
पर लिखना पड़ा
कहना नहीं चाहती थी
पर कहना पढ़ा
आज कल जो माहौल है
उसे देख ये ख़ामोशी
तोडना पड़ा
जब हम जैसे पढ़े लिखे ही
चुप हो जायेंगे
तो इस देश को कैसे
बचा पाएंगे
जो फंसे हुए हैं हिन्दू -मुस्लिम
के आपसी मुद्दों में
उन्हें खींच कर बाहर कैसे ला पाएंगे
भारत घर है हमारा
जो एक बीमारी से ग्रस्त है
कोरोना तो अभी आया है
पर इस मुद्दे से लोग १९४७
से त्रस्त है
हम कब आपसी झगड़ें भूल
इस बीमारी से निकल पाएंगे ??
अभी जो भारत मिसाल बन
लोगो की नज़रों में आया है
उसे social distancing ने
ही बचाया है
वरना तुम्हारे सामने ही है
अमेरिका इटली और स्पेन
का अंजाम
जो super power हो के भी
लाचार नज़र आया है ...
मौत का पैगाम लिए जो
हमारे दरवाज़े खड़ा है
वो किसी धर्म का मोहताज़ नहीं
वो खून पीने चला है
दूर रखें इस नियम को
अपनी आस्था से
और घर से ही अपने
देवों को याद करें
कण कण में उसको देखने वालो
अभी घर पर ही उसका ध्यान करें
जो है उस इश्वर का ही दूसरा स्वरुप
उन पर यूं थूक कर पत्थर बरसा कर
न उनका अपमान करें
तुम्हारे घर चल वो ऊपर वाला खुद आया है
क्यों न उसका इस्तिक्बाल करें...
जो वाकई पढ़े लिखे हैं ,उनसे ये
अनुरोध है कि
वे अब अपनी चुप्पी तोड़
इस मुहीम का भाग बने
जो भटके हुए हैं अपनी मंजिलों से
उनका सही मार्ग दर्शन करें
उन्हें डांटे भी पुचकारे भी
और ज़रूरत लगे तो
चार लगाये भी
अब समय आ गया है
अपनी टीवी खामोश करें
न जोड़ कर इसे विपदा को
किसी राजनीति से
सिर्फ अपना और अपने घर
का बचाव करें
अपने दिल की आवाज़ सुने
कोई कहता है कहने दो
भडकता है भड़काने दो
हम क्यों उनके हाथों की कटपुतली बने??
हम साथ रह रहे हैं कब से एक घर में
थोड़े मन मुटाव होंगे ही
पर एक दुसरे को तकलीफ में
देख कर आँख होगी नम भी
तो आओ खाए ये कसम
हम हिन्दू मुस्लिम भूल
पहले इंसान बनें
और कोरोना वायरस
को हराने की लड़ाई का
एक साथ आगाज़ करें
एक साथ आगाज़ करें ......
अर्चना की रचना "सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास"