ये जो लोग मेरी मौत पर आज
चर्चा फरमा रहे हैं
ऊपर से अफ़सोस जदा हैं
पर अन्दर से सिर्फ एक रस्म
निभा रहे हैं
मैं क्यों मरा कैसे मरा
क्या रहा कारन मरने का
पूछ पूछ के बेवजह की फिक्र
जता रहे हैं
मैं अभी जिंदा हो जाऊँ
तो कितने मेरे साथ बैठेंगे
वो जो मेरे रुख्सत होने के
इन्जार में कब से घडी
देखे जा रहे हैं
इन सब के लिए मैं
बस ताज़ा खबर रहा उम्र भर
जिसे ये बंद दरवाज़ों के पीछे
चाय पकोड़ों के साथ
कब से किये जा रहे हैं
ऐसे अपनों का मेरी मय्यत
पे आना भी एक हसीं वाक्या है
जहाँ ये अपनी ज़िंदगियों की
नजीर दिए जा रहे हैं
सिलसिला रिवायतों का जब
ख़तम हो जायेगा
फिर किसे मिलेगी इतनी फुर्सत
फिर कौन नज़र आएगा
सब रिवायते अदा कर
ये भी अपनी “मंजिलों “को ओर
बढे जा रहे हैं
इतनी अदायगी कैसे कर लेते हैं लोग
बिना एक्शन बोले भी
आंसू बहाए जा रहे हैं
न मेरे गम न मुफलिसी में
कभी रहे शामिल
अब मेरी तेरहवी पर भी
दिल बहलाने को
DJ लगवा रहे हैं …
नजीर -: मिसाल, तुलना
अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”