ऐसी कोई ख्वाहिश न थी,न ही इम्कां रखते थे कोई,कि वो समझेंगे जो कहेंगे हम।मुख्तसर सी ये गुजारिश कि,बैठें, रूबरू रहें, संग चलें,कि हमसायगी की कोई शक्ल बने।आसनाई मंसूब हो, फिर ये होगा,दरमियां कुछ सुर साझा हो चलेंगे,राग मुक्तिलिफ होंगे, लुत्फ का एका होगा।फर्क है भी नहीं