संस्मरण लिखना कठिन कार्य होता है। इसलिए नहीं कि कितना याद है अथवा कितना नहीं अपितु इस वजह से कि अपनी भी त्रुटियों को साफगोई से वर्णित करते हुए कैसे घटनाओं को सबके समक्ष प्रस्तुत किया जाये। यही स्थिति नियमित रूप से डायरी लिखने वालों की भी होती है। किन्तु ऐसा भी देखा गया है कि लिखने वाला अपनी गलतियों और यदि स्पष्ट रूप से कहा जाये तो वह अपने अपराधों तक को अवगत न कराते हुए दैनिक घटनाओं का प्रस्तुतीकरण करके उसे दैनन्दिनी या डायरी की संज्ञा दे देता है। परन्तु इसके विपरीत यहाँ मेरा उद्द्येश्य ईमानदारी से सत्य को प्रस्तुत करना है ताकि वर्णित घटनाओं का जो भी पठन करे वह उनका स्वयं विश्लेषण कर किसी भी प्रकार का लाभ यदि सम्भव हो तो ग्रहण कर सके।
रिटायरमेंट के फंक्शन के अवसर पर मेरे मित्रों ने अवकाश प्राप्ति के उपरांत मुझे पुस्तक लिखने का सुझाव दिया था। किन्तु पुस्तक लिखना एक महत्वपूर्ण और गंभीरता पूर्वक किया जाने वाला कार्य है जिसे प्रारम्भ कर समापन की स्थिति में लाना आवश्यक होता है। और फिर इस इंटरनेट के युग में पर्याप्त पठनीय और सभी विषयों से सम्बंधित बृहद सामग्री बेहद आसानी से उपलब्ध है और पुस्तक का महत्त्व वह नहीं रहा जो हुआ करता था। अनुभव लेने वालों की संख्या भी दिनोदिन घटती जा रही है क्योंकि अनुभव भी समय के साथ साथ अपनी प्रासंगिकता छोड़ते जा रहे हैं। कल का अनुभव आज उपयोगी होगा इसकी कोई भी गारंटी नहीं है। अतः यह सोचकर कि सबको सबकुछ पता है पुस्तक लिखने के विषय में नहीं सोचा। यह दिमाग में अवश्य आता था कि संस्मरण लिखा जाये जो याद है और भविष्य में किसी प्रकार भी उपयोगी हो सकता है। और आज से प्रारम्भ किये गए इस लेखन का मुख्य कारण भी यही है। इसमें मैंने फैक्ट्स को ही बतलाने का प्रयास किया है। कहीं कहीं अपने विचारों की भी अभिव्यक्ति किया है। इसके अतिरिक्त इसे लिपिबद्ध करने का एक उद्देश्य और भी है। प्रायः लोगों को अपनी अनुपस्थिति में किसी विवादित बिंदु पर अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं मिल पाता। इसलिए भी संस्मरण के रूप में लिखे हुए साहित्य का लाभ हो सकता है जिसे अवसर आने पर लोग आपका पक्ष समझने के लिए उपयोग में यदि चाहें तो ला सकें और आपके विषय में भी जान सकें। उदाहरणार्थ यदि कोई कहे कि मुझे शराब का व्यसन था तो लोग विश्वास न भी करें तो शक तो कर ही सकते हैं। लेकिन यदि मैंने यहाँ लिख दिया है कि मैंने कभी भी शराब नहीं पी तो इसे सत्य माना जाना चाहिए। वैसे तो झूँठा आरोप लगाने वाले और आपके वक्तव्य को भी गलत कहने वालों की संख्या भी निजी स्वार्थ में आसक्ति के कारण बढ़ती ही जा रही है। खैर, हमें यहाँ यह स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता नहीं है कि मेरे इस संस्मरण लिखने का क्या उद्देश्य है। मात्र आवश्यकता और प्रासंगिकता ही मूल उद्देश्य है। समय का उपयोग तो इससे जुड़ा ही हुआ है। साथ ही मेरी अनुपस्थिति में यह मेरे विचारों का भी कार्य करेगा। संतोष की बात तो यह है कि अभी मेरी स्मरणशक्ति पूर्ण तथा पूर्ववत ही है और जो नहीं स्मरण है उसे विशेष प्रकार का संकेत करते हुए ही प्रस्तुत करूंगा। यह सुनिश्चित करूँगा कि जो भी विवरण दिया जाये वह वास्तविक और सत्य हो। समय के क्रम में लिखना मेरा उद्देश्य नहीं है और न ऐसा अब संभव ही है। लेखन में यदा कदा कभी कभार पुनरावृत्ति की सम्भावना अवश्य है।
जब बात मिथ्याभाषण यानी झूँठ बोलने की हो तो आज के समय में सत्य को ही बोलना और शत प्रतिशत सत्य का आचरण यदि देखा जाए तो निश्चित ही दिखना असंभव है। लोग झूँठ बोलकर कह देते हैं कि यह झूँठ थोड़े न है। ऐसा तो सामान्य रूप से सभी आचरण करते हैं। इस विषय में जब मेरे बच्चों ने कभी मुझसे कुछ पूँछा और मैंने जानबूझ कर यदि हँसी मे सही बात नहीं बतलाई तो वो कहते थे कि पापा झूँठ बोल रहे हैं। तब मुझे उन्हें समझाना पड़ता था कि कुछ अवसरों पर बोली गयी झूँठ बात झूँठ की श्रेणी में नहीं आतीं। यथा हास परिहास में या किसी बड़े जनहित की पूर्ति के उद्देश्य से बोला गया झूँठ। इन अवसरों के विषय में अनेक उदाहरण हमारे धार्मिक ग्रंथों में वर्णित हैं। अब मोबाइल के समय में तो झूँठ बोलना और भी सामान्य बात हो गयी है। क्योंकि आपस में वार्ता भी अब अधिक होने लग गयी है। रही बात झूँठ बोलने की तो यह मानव के स्वभाव में ही शामिल हो जाता है यदि बचपन में सत्य बोलने की दृढ़ नींव न डाली जाये। इसमें आयु शिक्षा सामाजिक श्रेष्ठता आदि कुछ भी माने नहीं रखती। यदि आपके स्वभाव में झूँठ बोलना आ गया तो आप आजीवन चाहे मृत्यु शय्या पर ही क्यों न हों झूँठ तब भी बोलेंगे। ऐसा प्रायः ठेठ अपराधी करते ही हैं। अतः व्यक्ति को हमेशा सचेत रहना चाहिए और बिना ठीक से परखे किसी की बात पर भरोसा नहीं कर लेना चाहिए। फिर चाहे वो उसके माता पिता, भाई बंधु आदि ही क्यों न हों।
झूँठ बोलने से बुरी आदत मेरे विचार से और कोई नहीं होती। इसमें आपकी प्रतिस्पर्धा झूँठ बोलने वालों के साथ निरंतर चलती रहती है। क्योंकि वो ही आपके संसर्ग को पसंद करते हैं और उनका मित्रवत व्यवहार आपके साथ भली भांति चलता रहता है। जो लोग झूँठ दिल से नापसंद करते हैं वो आपसे दूरी बनाये रखना ही उचित समझते हैं और यदि आपसे सम्बन्ध रखते भी हैं तो आपके उच्चारित प्रत्येक वाक्य को भलीभांति परखते रहते हैं। मेरा स्वभाव जीवन में सत्य पर टिके रहने का रहा है। हालाँकि बचपन में दो तीन बार झूँठ अवश्य बोला लेकिन समझदार होने के बाद फिर कभी झूँठ नहीं बोला। या कहिये सौभाग्यवश आवश्यकता ही नहीं पड़ी अथवा कोई मजबूरी भी नहीं आयी। एक बार मैंने घर पर बतलाया था कि आज स्कूल दस बजे का है जबकि वह प्रातः का ही था। जब मैं पिता जी के साथ स्कूल गया तो हेड टीचर ने कहा बेटा आज आने में बहुत देर कर दी। और वो मुस्कुरायी थीं। एक प्रसंग जूनियर कक्षा का है जिसमे मैंने एक किताब अपने से बड़े क्लास के एक स्टूडेंट से पढ़ने के लिए ली थी और वह पापा जी को बहुत पसंद आ गई थी । बाद में मैंने उससे कह दिया था या मुझे कहना पड़ा था कि खो गयी। वो किताब हस्त रेखा विज्ञान पर थी। उसने कोई बात नहीं कही थी और टाल दिया था। यह उसकी आयु के अनुरूप बहुत ही प्रशंसनीय प्रतिक्रिया थी और मुझे अपने इस कृत्य पर आज भी बहुत ग्लानि व शर्मिंदगी है। मैने विश्वास तोड़ा था और झूँठ बोला था।
श्री रामचरितमानस की एक चौपायी है 'तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुँ तृन सम बरनी॥' तो सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। यह एक ऐसा गुण है जो आपकी सभी इन्द्रियों की वास्तविक प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। जिव्हा को वही उच्चारित करना चाहिए जो मस्तिष्क ने आपकी इन्द्रियों द्वारा अनुभव किया है। कुछ अलग बोलना हाथ पैर टेढ़े करके चलना या एक आँख बंद करके चलने जैसा है क्योंकि आप अपने अंगों का प्राकृतिक रूप से संचालन नहीं कर रहे हैं और मूर्खतापूर्ण आचरण भी कर रहे हैं। उसी प्रकार मस्तिष्क के द्वारा सही संकेतों को परिवर्तित या विपरीत प्रकार से उच्चारित करना एक मानसिक व्याधि ही नहीं अपितु अपराध की श्रेणी में भी आता है। कासिम ने अशर्फियों के विषय में झूँठ नहीं बोला क्योंकि उसकी माँ ने कहा था कि बेटा झूँठ कभी मत बोलना और उसके इस गुण ने उन डाकुओं को भी प्रभावित कर दिया था। झूँठ से मुझे अत्यधिक नापसंदगी है अथवा यह भी कह सकते हैं कि घृणा है।
श्री रामचरितमानस एक ऐसा प्रकाशपुंज है जिसे दैविक कृपा होने पर ही समझा जा सकता है। जिस प्रकार इसकी मान्यता है और लोगों की श्रद्धा है वह वास्तविक रूप में इसमें निहित सुविचारों के कारण ही है। इसके किसी भी बिंदु पर यदि किसी को कोई आपत्ति है तो वह उसके द्वारा इसको समझने में कमी रह जाने के ही कारण होती है। यह अद्वितीय ग्रन्थ है जिसे तुलसीदास द्वारा प्रगट किया गया है। यह बतलाना उचित नहीं होगा कि मैंने इसका स्वाध्याय किस प्रकार और कितनी गंभीरता से किस प्रेरणा से किया है। सर्वप्रथम मैंने इसे सन उन्नीस सौ छियासी में क्रय किया था जब मैं दिल्ली में था।
प्रायः मनुष्य सोचता है कि अपने भविष्य का निर्माता वह स्वयं है। किन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि अत्यधिक परिश्रम करने वाले को भी कभी कभी निराशा ही हाथ लगते पाया गया है। वहीं कोई व्यक्ति बिना अधिक परिश्रम के भी बहुत अधिक सफलता प्राप्त करता हुआ दिखता है। इस विषय में मेरा विचार बिलकुल स्पष्ट है कि विधि का विधान बहुत ही महत्त्व रखता है। यह पूर्व से ही निर्धारित होता है कि किसी व्यक्ति को क्या प्राप्त होना है अथवा किन किन परिस्थितियों से होकर गुजरना है इसमें हम कोई भी फेर बदल नहीं कर सकते। क्योंकि प्रेरक वही है जिसने विश्व का निर्माण किया है। जब सिद्धांतों पर ही ब्रह्माण्ड गतिमान है तो मनुष्य ही क्या किसी भी चर अचर को जिन परिस्थितियों से होकर गुजरना है, वह भी किन्ही सिद्धांतों पर ही निर्भर करता होगा। दैविक प्रेरणा के कारण आज का किया गया कार्य कभी भी फलीभूत हो सकता है। तत्काल या वर्षों उपरान्त हम उसके प्रभाव को प्राप्त करते हैं। परन्तु यह भूल जाने के कारण कि यह परिणाम किस कार्य के फलस्वरूप आज दिख रहा है उसमे हम सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते और कहते हैं कि यह स्वतः या मेरे द्वारा किये कार्य के कारण अथवा अकस्मात बाई चांस हो गया। जैसे अबसे बीसों वर्ष पूर्व जो बहुत ही घनिष्ठ और प्रिय था आज वह जब फ़ोन करता है तो उसका फ़ोन भी पिकअप करने का हम कष्ट नहीं करते। संबंधों में ऐसा परिवर्तन दीर्घकाल में किये गए छोटे छोटे गलत कार्यों के कारण आ जाता है। ऐसी स्थितियाँ स्वतः अकस्मात नहीं बन जातीं बल्कि हम स्वयं निर्मित करते हैं क्योंकि कोई अदृश्य शक्ति हमसे ऐसे कार्य कराती रहती है।
हम आज क्या कर रहे हैं इस पर हमें विशेष ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि उसी पर हमारा भविष्य निर्भर करता है या निर्मित होता है। बचपन में दिए गए संस्कार किसी के लिए भी बहुत ही महत्त्व रखते हैं और इसमें परिवारजन का ही प्रथम योगदान होता है। जैसी संगत वैसा ही आचरण, वैसा ही स्वभाव। बच्चे बड़ों को अपना आइडियल अर्थात आदर्श मानकर आचरण करते हैं। मेरे बचपन के कार्यकाल में मेरे सबसे छोटे चाचा रवि शंकर जी का बहुत ही बड़ा योगदान रहा है। गीताप्रेस की बालकों से सम्बंधित पुस्तकों को मुझे लाकर पढ़ने हेतु देना मेरे लिए अमृत तुल्य रहा है। वीरता, दृढ़ता, सत्यनिष्ठा सत्य पर चलने का स्वभाव, परिश्रम आदि अनेक गुणों को मैंने उन पुस्तकों में वर्णित पात्रों के माध्यम से जाना और उन्हें आत्मसात किया। अब यह आत्मसात करने वाला गुण कहाँ से आया इसे मैं ईश्वरीय प्रेरणा के कारण प्राप्त हुआ समझता हूँ। क्योंकि बहुत से बच्चे उन्हीं पुस्तकों को पढ़ते रहे होंगे किन्तु उन्होंने उन गुणों को अपने जीवन में आत्मसात नहीं किया रहा होगा। इन बालोपयोगी पुस्तकों की पूरी लिस्ट अभी भी प्रेस की वेबसाइट पर उपलब्ध है। हमें याद पड़ता है कि मेरी पहली कहानी की पुस्तक पंचतंत्र की कहानियाँ थीं जो सचित्र थीं और जिन्हे रवि शंकर जी ने लाइब्रेरी से ईशू कराकर दी थी। वो स्वयं पुस्तकों विशेषतर उपन्यासों को पढ़ने में अत्यधिक रुचि रखते थे और उसके दुष्प्रभाव के कारण ही हो सकता है उनके नेत्रों की ज्योति क्षीण हुई हो। उनकी शिक्षा तो प्रभावित होनी थी ही। आश्चर्य तो यह होता है कि उनके बड़े भाइयों ने उनपर अनुशासन लगाने का प्रयास क्यों नहीं किया था और एक व्यक्ति को जिसकी स्मरण क्षमता बहुत ही अच्छी थी, को इस प्रकार का उपन्यास प्रेमी अथवा लती बनने से क्यों नहीं रोका।
उनकी स्मरण क्षमता तो मैं इस प्रकार आकलन करता हूँ कि उन्हें विभिन्न महान व्यक्तियों के जीवन के विषय में बहुत ही सूक्ष्म ज्ञान था। उन्होंने मुझे अनेकों महान विभूतियों की लिखी कहानियाँ सुनाईं थीं जिनके पात्रों के नाम याद रखना कठिन कार्य था। आल्हा उदल, शिवा जी, पृथ्वी राज चौहान, राणा प्रताप आदि के विषय में तो बहुत ही विस्तार से वर्णन किया था। एक तो उनकी कहानियों को सुनाने की शैली बहुत ही रोचक थी दूसरा उनका कथा चित्रण दोनों ही श्रेष्ठ थे। प्रायः रात्रि के समय में मैं उनसे बचपन में कहानियों को सुनाने का आग्रह करता था और वो सुनाते भी थे। शर्त यह रहती थी कि मैं हुँकारी भरता रहूं अर्थात 'हाँ' बोलता रहूं और उनका हाथ दबाता रहूं। ऐसा वो निश्चय ही मेरे जागते रहने के संकेत के रूप देखते रहे होंगे क्योंकि उस समय अँधेरे में देखकर यह जानना मुश्किल होता था। उस समय बच्चों को शाम के समय अन्धेरा होते ही प्रायः नींद आने लग जाती थी। तो जब तक उनकी शिक्षा विद्यालय में प्रारम्भ नहीं हो जाती तब तक तो ठीक है लेकिन तत्पश्चात उन्हें रात्रि में थोड़ा देर तक जागने की आदत डालने की क्रिया शुरू हो जाती है और इसका अभ्यास कराया जाना होता है। तो वो यह सब मुझे जगने के अभ्यास डालने के लिए भी करते रहे होंगे। क्योंकि मुझे याद है कि मैं कभी कभी नींद के कारण बैठ तक नहीं पाता था परन्तु वो मुझे बिठाये रखते थे या बैठने के लिए बाध्य किया करते थे। आज यह सब एक इतिहास बन चुका है लेकिन इसका यह परिणाम है जो मैं आज इतने वर्षों उपरान्त भी उन्हें याद कर रहा हूँ और उसका प्रभाव सभी के सामने है।
इस प्रकार मेरे जीवन में संस्कारों का निर्माण मुख्यतः उनके द्वारा ही किया गया जिसके लिए मैं जीवन पर्यन्त उनको याद करता रहा और आभारी रहा हूँ। हाँ, हो सकता है कि पारिवारिक कारणों से कभी बाद में विवाद भी उनसे हुआ रहा हो किन्तु जो सत्य है वह सत्य रहेगा ही। और यही कारण रहा होगा जो उनकी मृत्यु पर उनके शव के समक्ष भूमि पर दरवाजे की दहलीज पर ही बैठ मैं इतना विकल होकर रोया था। उतना मैं अपने जीवन में किसी के भी देहावसान पर फिर नहीं रोया। उनका निधन अकस्मात ही बावन वर्ष की अवस्था में हृदयाघात के कारण हो गया था और जब मैं स्वरूपगंज उनके आवास पहुँचा तो सभी शोक मग्न थे किन्तु अब उनका रुदन रुक चुका था। केवल उनकी पत्नी ही उनके निकट बैठ कर अभी रोती जा रहीं थीं और कह रही थीं कि 'कोई उन्हें उठा दे'। उनके भी आंसू अब समाप्त से हो चुके थे। मेरी स्थिति तो इतनी दयनीय थी कि मैं यह सोच रहा था कि हे ईश्वर यह क्या हो गया। उनका शरीर निश्चेष्ठ एक काया मात्र रह गया था। सब कुछ समाप्त हो चुका था। मैं जनवरी की उस ठंढ में एक जीप बुक कर अकेले ही सुलतानपुर से स्वरूपगंज पहुँचा था। कोई पास आकर मुझे शांत करवाने वाला भी नहीं था यद्यपि मम्मी जी एवं मेरे परिवारजन वहाँ थे। कुछ समय पश्चात मेरे चचेरे भाई चंद्र प्रकाश जी ने आकर कहा था कि भैया अब शांत हो जाइए और आगे के विषय में क्या किया जाना है उस पर विचार कीजिये। इस विषय में चंद्र प्रकाश जी मुझसे अधिक मैच्योर थे। या हो सकता है किसी ने उन्हें यह कहने के लिए निर्देशित किया रहा हो। फैज़ाबाद से पापा जी व देवेंद्र प्रकाश नहीं आए थे। देवेंद्र अंत्येष्टि के समय सीधे अयोध्या घाट पर आये थे। रवि शंकर जी के बच्चे काफी छोटे थे और पुत्र मात्र सात वर्ष का था जिसके विषय में उन्होंने क्या क्या सोच रखा रहा होगा, उन्हें ही पता रहा होगा। तीन लड़कियों के पिता वो पहले से थे और बाद में दो जुड़वाँ बच्चे हुए जिनमे यह एक पुत्र भी पुत्री के साथ था।
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