संस्मरण, कोलकाता 2016
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क्या हुआ जी ! अब तुम से परिधि बात करती है ?
नहीं पापा!
क्यों ?
पता नहीं ....जबकि मैं उसका पेंसिल बॉक्स भी उठा कर देता हूँ तब भी नाराज़ ही रहती है।
"सुयोग परिधि के पास बैठता है पर उसकी दोस्ती की परिधि से अभी तक बाहर है।"
नन्हा सा दिल.....थोड़े से अरमान!
उसे भी चाहिए एक मुठ्ठी आसमान!
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आज जब सुबह उसे विद्यालय छोड़ कर आ रहा था तो चलते समय ऐसा लग रहा था कि हाँ मैं ही चल रहा हूँ...हर कदम का अहसास भीतर तक महसूस हो रहा था, बहुत दिनों के बाद पक्षियों का कलरव भी सुन सका शायद इसे ही होश कहतें हैं।
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सुयोग के वर्तमान दुःख से मुझे भी कष्ट हुआ ,भविष्य के डर और भूत के भयावह अनुभव से और भविष्य से आयातित पीड़ा में मन रम सा गया।
यही बेहोशी है। यही विस्मृति है।
#योगी