भाषा की जब बात होती है तो इसके विभिन्न आयामों में से एक है कि यह एक साधन है:अभिव्यक्ति ,संवाद व सम्प्रेषण की...
लेकिन कभी इस पर विचार नहीं होता कि भाषा इसके इतर क्या करती है...भाषा जीवन के मूल को सींचती है..किसी भी भाषायी समृद्ध व्यक्ति के पास संज्ञानात्मक सुदृढ़ता,मनोबल का ऊंचा होना और अपने क्षेत्र में सिद्धहस्त होना सहज ही देखा जा सकता है।
भाषा आत्मा,मन,चेतना और अस्तित्व की पोषक, प्रफुल्ल बनाने में सहायक और सकारात्मक मनःस्थिति की उत्प्रेरक है।
भाषा सबकी अच्छी होती है,कोई भाषा बुरी नहीं होती, इन सब के मध्य सबसे अच्छी होती है "मातृभाषा"....मातृभाषा की सबसे अच्छी व्याख्या हो सकती है- जिसमें व्यक्ति स्वयम के विदारक दुःख की अभिव्यक्ति करता हो...
एक कहानी है कि एक राज्य में एक जासूस घुस आया था,संदेह सबको था पर उसे कोई पकड़ नही पा रहा था।
सबसे बड़ी बात थी कि कोई प्रमाण ही नही मिल रहा था कि वह दूसरे देश से है।
वह संबंधित राज्य की भाषा-संस्कृति से ऐसा घुला मिला हुआ था कि वह कहीं से भी किसी से अलग नही लग रहा था।
राज्य के बुद्धिमान वृद्ध से पूछा गया कि उपाय क्या है....?
क्या करें कैसे इसे पकड़ें!
वृद्ध ने सलाह दी यह जब भी अकेले मिले इस जोरदार घूंसा मारो...और छिप जाओ ,
उसे पता न चले कि किसने मारा है...
और ऐसा ही किया गया जोरदार घूँसा पड़ते ही वह कराह उठा अपनी मातृभाषा में अपनी माँ को याद किया...और भेद खुल गया।
अब आते हैं संज्ञानात्मक विकास के उस पहलू पर जिसमें ज्ञान को स्थिर करने हेतु उसको दुहराना आवश्यक है।
आपको कोई भी कॉन्सेप्ट या प्रमेय जब आपकी भाषा में सिखायी जाती है तो आप उसके दोहराने का काम स्वतः ही कर लेते हैं ।
उसे दुहराने पर बल नही लगाना पड़ता क्योंकि उसका चिंतन स्वाभाविक रूप से हमारे मनसा में चल पड़ता है।
अब यही बात अन्य भाषा मे सिखायी जाएगी तो आपको तो पहले उस भाषा से ही पहली लड़ाई लड़नी है,वह अन्य या गैर की भाषा एक सहायक के रूप में न हो कर एक बाधा के रूप में आपके सामने आ जाती है:-
मनोविज्ञान की भाषा में एक नकारात्मक अधिगम के रूप में इसे मान सकते हैं।
विषय वस्तु को हृदयंगम करने को, विषय में उतरने हेतु आपको दो गुना मेहनत करना होगा।
आज भारत विश्व के बाजार में नौकर -प्रदाता के रूप में खुद को स्थापित कर के प्रसन्नमन है।
जबकि आपके पास मानव संसाधन है ,उत्कृष्ट दिमाग़ है तो आप मालिक होने चाहिए न कि नौकर।
नौकर क्यों हैं क्योंकि विषय आत्मसात नही किये गए।
विषय आत्मसात क्यों नही किये गए क्योंकि वे अपने नही लगे,अपने क्यों नही लगे क्योंकि वे अपनी भाषा में नही थे।
यह जो अपनी-अपना है...(अपनापन का भाव)
यही सबसे अधिक काम करता है:- सड़क पर आपका बच्चा चोटिल हो जाये और किसी अन्य का तो किस पर आपकी तत्परता दिखेगी?
निश्चय ही आप अपने सन्तान हेतु अधिक कृतसंकल्प रहेंगे।
विश्व का कोई भी ऐसा देश नही है जो उधार की भाषा से विकसित बन पाया है।
विश्व मे जितने भी विकसित देश हैं वे अपनी भाषा में काम करते हैं शिक्षा देते हैं।
जापान,चीन,रूस,अमेरिका,ब्रिटेन,फ्रांस,जर्मनी सभी के सभी अपनी भाषा के धनी देश हैं।
उधार की भाषा से आंशिक सफलता मिल सकती है,मालिकान हक नही मिलेगा।
किसी ने सच कहा है और निज भाषा के सम्बन्ध में उत्तम उदाहरण है।
"पूल पार करने से पूल पार होता है,नदी नहीं
नदी पार करने को नदी में उतरना पड़ता है
लहरों से जूझना पड़ता है"
इज़राइल के यहूदी दुनिया भर में लुटे पीटे गए दुनिया के हर कोने में सफल होते हुए भी उनकी अस्मिता दांव पर थी।
हिटलर की यातना से ले कर सेमेटिक मजहबों की आतंक से वे पीड़ित हुए और अंत में वे वहीं पहुँचें जहाँ उनकी जड़ें थीं, अपनी मृतप्राय भाषा "हिब्रू" को फिर से जीवित किया।
हिब्रू में न केवल अपने साहित्य को विकसित किया वरण विज्ञान,तकनीक और खगोल से भूगोल तक सब हिब्रू में अनुदित किया, अपने आने वाली पीढ़ियों को अपनी भाषा उपहार और धरोहर के रूप में प्रदान किया, सीखना अनिवार्य किया और सबसे कम संसाधनों वाले अपने देश को सफलता के शिखर पर पहुँचा दिया।
सफलता बलिदान मांगती है और उनके शिखर पर पहुँचने का सूत्र निम्न पंक्ति में है।
"जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है"
मातृभाषा हमारे जिन(गुणसूत्र) में एनकोडेड होते हैं,हमारी रगों में होती है हमारी भाषा।वह मानो दैहिक या मनःकायिक सम्पुष्टि प्रदाता है।
अतः मातृभाषा जीवन के तमाम उन पहलुओं हेतु उतना ही अनिवार्य है जितना हमारे शरीर हेतु पोषण।
मज़बूत व्यक्तित्व और गुणवत्ता वाले संज्ञानात्मक विकास की अवधारणा हमारी मातृभाषा में सन्निहित है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य के पुनर्जागरण के अग्रदूत हैं जब वे लिखते हैं
"निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।
निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।
तब वे न केवल निजभाषा के महत्व को रेखांकित कर रहे हैं वरन भविष्य के प्रति उनकी गहरी अन्तःदृष्टि उद्भासित हो रही है।वे भविष्य साफ देख रहे हैं ,समग्र उन्नति के मूल के रूप में निजभाषा के महत्व को महती बता रहे हैं।
बी एफ स्किनर द्वारा प्रस्तावित व्यवहारवादी सिद्धांत ने सुझाव दिया कि भाषा ऑपरेटेंट कंडीशनिंग के माध्यम से, अर्थात् उत्तेजनाओं की नकल और सही प्रतिक्रियाओं के सुदृढ़ीकरण के माध्यम से सीखी जाती है।
इनके अनुसार बच्चे में LAD:- Language Acquisition Device (LAD) is a hypothetical module of the human mind posited to account for children's innate predisposition for language acquisition ) होता है।
जो भाषा विकास में सहायक है।
बाल मन स्वतः अंतःक्रिया से सीखता है -और यह भी खुद के नैसर्गिक वातावरण से उसे मिलता है,तो जाहिर है ऐसे में मातृभाषा के अलावा और कौन सी भाषा होगी जो ऐसे प्राकृतिक विकास को आत्मसात करने में मदद करेगी।
मानव के दिमाग में जो सहज तरीके से, मातृभाषा की बुनियादी संरचनाओं का ज्ञान है।
इस तरह, विभिन्न संस्कृतियों के बीच भाषा सीखने और बचपन में मूल भाषा सीखने में आसानी के सापेक्ष समानता, सामान्य भाषा संरचनाओं जैसे SVO (विषय - क्रिया - वस्तु) को समझने की सहज क्षमता के कारण हैं।
इस प्रकार, भाषा के चॉम्स्की के सिद्धांत का मानना है कि एक बच्चा भाषा को एक्सपोज़र और नकल से नहीं सीखता है, बल्कि भाषा के वाक्यात्मक संरचनाओं के अपने सहज ज्ञान से संबंधित बातों से सीखता है, उनमें "शब्दों के सीमित सेट" के साथ (जिसे लेक्सिकॉन भी कहा जाता है) भी सीखता है जो इस सिद्धान्त में शामिल हैं।
व्यक्ति समृद्ध मातृभाषा के कारण अभिव्यक्ति, संवाद और सम्प्रेषण में उच्च योग्यता विकसित करता है तो रहिम का वह दोहा फलित होते सहज ही दिखता है -जिसमे वे कह रहे हैं।
दीरघ दोहा अरथ के,आखर थोरे आहिं।
ज्यों रहिम नट कुण्डली सिमिटि कूदि चढ़ि जाहिं।।
गागर में सागर भरना हो या कठिन से कठिन विषय में महारथ हासिल करना हो,भाषा प्रथम सीढ़ी है उत्तरोत्तर यही मार्गदर्शक भी है और स्वयं में मार्ग और लक्ष्य भी।
योगेश कुमार मिश्र