"ऋषति प्राप्नोति सर्वान मन्त्रान, ज्ञानेन पश्यति संसार पारं वा"
अर्थात जो सब मन्त्रों ( परम् सत्य) का साक्षात द्रष्टा हो, जो अपने ज्ञान से संसार (दृश्य) और इसके इतर (अदृश्य लोक व अनेक आगामी या भूत काल खण्डों को) देख या जान लेता है वह ऋषि होता है।
यद्यपि आज के समय में ऋषि होना दुर्लभ है फिर भी ऋषि के आस पास के लोग आज भी विद्यमान हैं।
सब के माता- पिता महान होते हैं- यह इस कारण से की जो महती उपकार माता- पिता एक संतान पर करतें हैं उस से उऋण होना कठिन है। किंचित पिता का ऋण उतारा जा सकता है किंतु माता का ऋण उतारना तो असंभव ही जान पड़ता है। यहाँ कथ्य केवल इतना ही है कि सभी को अपने माता- पिता को ईश्वर तुल्य- गुरु तुल्य समझ कर उनकी सेवा व आदर करना उसका कर्तव्य है यही भव रोग का पथ्य और औषधि दोनों है।
इतनी भूमिका इस कारण से कि मैं अपने पिता के बारे में कुछ बातें बता रहा हूँ।
हर व्यक्ति के स्मृति की सामान्य सीमा होती है जबकि योगी अपने जन्म-जन्मांतर को जानता है। मैं तो एक अतिसाधारण व्यक्ति हूँ मेरी स्मृति जहाँ तक जाती है - मुझे अंतिम स्मृति यही है कि मेरे पिता मुझे अपनी गोद में ले कर चाँदनी रात में आंगन में टहल रहे हैं।
मैं कभी अनमना सा उनके कंधों पर सो जाता हूँ कभी जाग जाता हूँ। लगभग एक वर्ष का थुल-थुल बालक, नंग-धड़ंग, गर्मी और उमस से परेशान... कभी कभी हल्की सी हवा चलती तो नींद गहराती....फिर शायद भूख और गर्मी के कारण जग भी जा रहा हूँ।
पिता जी भगवान का धीमे धीमे नाम ले रहे हैं...यह रात के 8 बजे का समय रहा होगा...माँ गुड़ मिले दूध में मिला कर ले आयी है...मैं जग कर कुछ सुबक-सुबक कर रो रहा हूँ...पिता जी मेरे पीठ को सहला कर मुझे चुप करा रहे हैं और चम्मच से मुंह में दुग्ध मिश्रित रोटी खिला रहे हैं..मेरे मानस पर आज भी उनकी रोमवाली, उनकी छाती से चिपके होने की स्मृति एक दम ताजी है...
इसके बाद की तो स्मृतियां अनंत हैं, किसे गिना जाए किसे भुलाया जाए।
तो बात हो रही थी ऋषि की...मैं यह कहने का अधिकारी नहीं हूँ कि कौन ऋषि है, कौन नही है; लेकिन मैंने पिता जी में सत्य के प्रति निष्ठा और अपने काम के प्रति कठोर ईमानदारी और साधना बल का तेज इतने निकट से देखा है कि मैं उनका पीछा करते करते थक जाऊं वह प्राप्त नही कर सकता।
एक बार मेरे भैया को कहीं जाना था..वर्षा का माहौल था..वर्षा न हो यह कहीं से नही लग रहा था..भैया की पिता जी के प्रति निष्ठा और पिता जी का तपोबल दोनो का ऐसा वैभव हुआ कि पिता जी ने कहा जाओ वर्षा तुम्हारे लिए नही होगी...भैया आग-आगे वर्षा पीछे-पीछे। जब तक भैया बाजार पहुँच कर बस में बैठ नही गए वर्षा उन्हें छू न सकी।
ऐसी कितनी ही स्मृतियां आज भी बनी हुई है।
पिता जी जैसा शिक्षक मैंने बहुत कम देखा है। जब पढ़ाते तो पूरी कक्षा तल्लीनता के सागर में डूब जाती , मैं बहुत दिनों तक बाबू जी का विद्यार्थी नही रहा लेकिन जब भी कक्षा में उपस्थित रहा वह सब अनुभव अंतयम रहे हैं।
व्रत या कर्मकांड या कोई कठिन अनुष्ठान रहा हो सब उनकी कार्यकुशलता से फलीभूत होता रहा है।
गया में पितृपक्ष में जो 17 दिनों का तर्पण व श्राद्ध होता है उसमें बहुत सावधानी,पवित्रता, तपस्या और संयम की आवश्यकता रहती है । इस व्रत को भी पिता जी ने माता जी के साथ निभाया और उसके पश्चात श्री मद्भागवत कथा का घर पर आयोजन किया।
भागवत की कथा का ऐसा शानदार और भव्य समापन हुआ वह अवर्णीय है।
पिता जी सच्चे मायने में कर्मयोगी हैं वे कभी भी एक क्षण भी नष्ट नही होने देते।कुछ न कुछ पढ़ते रहना, गाय की सेवा- टहल, बागवानी, समाज सेवा..इसके अलावा वे सबको बड़े ध्यान से सुनते हैं।
कुछ बातें पिता जी मे आम लोगों से हट कर भी है। पाँच वर्ष तक बालकों को कभी भूल से डाँटते नही हैं और उसके बाद किसी भी गलती पर छोड़ते भी नहीं हैं।
कहा जाता है "मोह सबिन्ह व्यधिन कर मूला" पिता जी अपने सन्तान से प्रेम तो करते हैं, चिंता भी करते हैं लेकिन मोह इन्हें किसी से भी नही हैं। जीवन का अधिकांश भाग स्वपाकी रहे, एकांत सेवन किया और सदाचार, आवश्यक ताम झाम से दूर रहे।
याद आता है पिता जी सदैव कहते हैं "भोजन, भजन और भ्रमण" यह सब समूह में हो तो अच्छा रहता है।
वे हम सब को श्रावण मास में गांव से सटे पहाड़ पर शिवालय में ले कर जाते। वहाँ सब भाई बहन एक साथ शिवार्चन करते तो हम सब अनिवर्चनीय आनंद से आकंठ तृप्ति का अनुभव करते।
साथ में यज्ञ करते पिता जी माला पर जप करते हुए स्वाहा कहते और हम सब भाई अपने नन्हे हाथों से समिधा को हाथ में ले कर अग्नि में डालते हुए एक साथ स्वाहा बोलते..एक दूसरे की तरफ मुस्कुराते हुए देखते और अपने पिता की ओर गर्व से देखते...
ये हैं हमारे पिता....महान, कर्मठ और यशश्वी।
कई बार ऐसा समय आया कि असत्य बोल कर संकट को टाला जा सकता था पिता जी ने उस समय भी सत्य बोल कर कष्ट सहन करना स्वीकार किया लेकिन असत्य की शरण नही ली।
जो व्यक्ति सभी जगह जीत जाता है शायद वह अपने पुत्रों से हार जाता है। हम वह नही हो पा रहे हैं -जो वे हैं । शायद यही उनकी हार हो सकती है।
लेकिन पिता जी हार और जीत के परिणाम से परे हैं । वे हर सांस को कर्म में झोंक देते हैं और ऐसे ही आहुति देते रहेंगे।
पद्मासन पर बैठे घण्टो मन्त्र में तल्लीन पिताश्री को जीवन से कोई शिकायत नही है...वे धन्य हैं, धन्य करते रहेंगे और धन्य-धन्य हो कर ही गमन करेंगे।
महापुरुष शान से माथा उठा कर जीते हैं और सबसे बड़ी बात- वास्तविक महान वह है जिसके पास जा कर आप को यह लगे कि मैं भी महान हूँ" इस भाव को पिता जी ने सब को महसूस करवाया है।
आकाशधर्मा पिता जी को शत शत नमन!💐