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शहर एवं गांव:-आधुनिक जीवनमंच

4 मार्च 2023

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यूँ तो जीवन-अनुभवों में भिन्नता के कई मापदंड होते हैं, परंतु मुख्यधारा में शहरी एवं ग्राम्य जीवन का ही चलन है।अगर स्तरों के आधार पर देखें तो पहले अतिलघु गांव के जीवन फिर आधुनिक गांव,छोटे कस्बे, बड़े शहर और अंत में महानगर यानी कि पूर्णतः आधुनिक जीवन यापन क्षेत्र उपलब्ध है।तुलनात्मक दृष्टि से दोनों क्षेत्रों के पक्षधर अपनी जीवन-शैली को सर्वश्रेष्ठता के श्रेणी में सजा कर रखे हैं।परंतु ग्राम्य-जीवन की चमक आज भी धूमिल नहीं हो पायी है।

                         अगर आज के शहरी लोग जिनके पूर्वज  ग्रामीण होते थे,साहित्य में गांव देखेंगे तो उनको आकर्षित होने से कोई नहीं रोक सकता। साहित्य ने गांव को सादगी, स्वच्छ्ता, निश्छलता के स्याही से इस तरह रंगीन किया है कि कोई भी मोहित हो जाये।खेतों की हरियाली,किसानों की दरियादिली और ग्रामीणों के भोलेपन को लेखकों ने इस तरह से उकेरा है कि अनायास ही मन गांव देखेने को लालायित हो जाये।अगर वास्तविकता पर ध्यान केंद्रित करें तो इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि ढिबरी की रौशनी में गांव ने हरपल खुले हाथों से सबकी आवभगत की है।चूल्हे की धुसिर भोजन से मन को तृप्त किया है तथा कुएँ के जल से प्यास को मिटाया है।किसानों ने हरियाली से धरती का श्रृंगार किया है तो खेतों की उपज से जग का कल्याण किया है।

                      दूसरी तरफ शहर ने अंग्रेजी-शब्दकोष की तरह स्वीकारोक्ति को ही आधार घोषित कर लिया।इसने प्रत्येक को उसके आचार-व्यवहार और त्योहार के साथ अपना वासी बना लिया।लेकिन सबसे बड़ी शर्त ये रख दी कि सर्वप्रथम ग्रमीण जीवन-शैली के सदभाव को गांव में छोड़ आना होगा।आधुनिक होने के लिए  "हम"  शब्द से  "मैं" की ओर अग्रसर होना होगा।रिश्तों-नातों की व्यापकता से निकलकर संकीर्णता में जीवन तलाशना होगा। लेकिन शहर ने दर्शन के वाक्य "कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।" का पालन भी पूरी समर्थता के साथ किया।इसने गांव छीना तो चकाचौंध दिया,सुविधा और रोजगार दिए।रिश्ते-नाते छीने तो  छद्मता और अकेलापन के साथ बहुयामी होने का उपहार दिया।सुख-चैन के बदले तनाव तो सहानुभूति के जगह पर उदासीनता तथा कृत्रिमता से नवाज दिया।

                                        अपनी इन कई विकृतियों के बाद भी शहरी जीवन सबसे रोचक बनता जा रहा है।कारण ये है कि शहर के हवाओं में भले ही जहरीले रासायनिक कण हो जो मानव जीवन का विनाश कर दे पर गांव के वातावरण में द्वेष,चाटुकारिता,कपट और ईर्ष्या ने अपना प्रभाव इस तरह छोड़ा है कि जो जीवन ही नही जीवन के नई उम्मीद के अंकुरण को दूषित कर दे।शहर से गई बिजली के बल्ब की चमक ने  गांव के सौंदर्य को इस तरह ढ़क दिया है कि गांव न अब शहर बन पाया है और न ही गांव रह सका है। और बीच की स्थिति हमेशा से दुष्कर रहा है।शहरों में  दो दीवारों के आर-पार दो अपरिचित रहते हैं पर आधुनिक गांव के घर में अब परिचित शहरों के भांति रहते हैं।जंहा घरों में दादा-दादी,माता-पिता,भाई-बहन के रिश्ते गुंजायमान होते थे अब वंहा सबका"स्वयं" रहता है।उन घरों में अब द्वेष,ईर्ष्या,तनाव ,कलह ,हिस्सा-बंटवारा का डेरा रहता है,ग्रामीण तो कबके अर्धजीवी बन गए।शायद सीमित जीवन-शैली के प्रभाव ने ही ग्रमीण-घरों से आँगन का प्रचलन ख़त्म कर दिया है।क्योंकि जंहा केवल " मैं" रहता हो वंहा आँगन में चूल्हे कौन बनायेगा? दादा-दादी के किस्से कौन सुनेगा?बंद कमरों में आधुनिक क्रीड़ा-यंत्र हो तो बच्चें बाहर क्यों खेलेंगे? राजनीति ने भी गांव को  जाति-संप्रदाय के अखाड़े में पटक-पटककर उसका अस्थि-पंजर एक कर दिया है।अब गांव के दो प्रकार बन गए हैं पहला साहित्य के काल्पनिक गांव जो पठन मात्र से ही मन प्रफुल्लित कर दे। दूसरा है वास्तविक आधुनिक गांव जो असली ग्रामीण के मन को कचोट के रख दे।पर अब साहित्य के काल्पनिक गांव ही वास्तविकता का पर्याय बना रहेगा क्योंकि बीते हुए कल ने कभी लौटकर दरवाजों पर दस्तक नहीं दिया है।

     

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