इन दिनों देश के एक प्रदेश में शराब पर राजनीति का घमासान मचा है। इसके एक छोर पर एक पूर्व मुख्यमंत्री हैं, जिनका मानना है कि शराब गरीबों के घर उजाड़ रहे हैं, इसलिए वर्तमान सरकार को शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना चाहिए तो दूसरे छोर पर उनकी पार्टी के ही वर्तमान सरकार है, जिनका कहना कि वह प्रदेश में इस नशे के कारोबार से होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए जन-जागरूकता अभियान चलाकर अंकुश लगाएगी। ज्ञात हो कि यह मुद्दा एक ही पार्टी के दो राजनीतिज्ञों के बीच पहली बार नहीं उछला है, इससे पहले भी पूर्ववर्ती सरकार में उप मुख्यमंत्री रह चुके एक राजनेता ने यह आवाज बुलंद की थी, लेकिन कुछ समय बाद बड़े-बड़े घंटालों के बीच जिस तरह छोटी-छोटी घंटियों की आवाज दब कर रह जाती है, उनकी आवाज भी दब कर रह गई। अब फिर राजनीति के किसी पुरोधा ने गरीबों का हमदर्द बनकर 'पत्थर उठाकर शराबबंदी का अभियान' चलाया है। जहाँ किसका पलड़ा भारी होगा? यह भोली-भाली गरीब जनता को देख-समझंना बाकी रहेगा। शराब पर राजनीति की बातें चलती रहती हैं, लेकिन कोई भी सरकार शराब से होने वाली आमदनी से कई अधिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होने के बावजूद भी अन्य कोई वैकल्पिक स्रोत न देखते हुए इस पर प्रतिबन्ध लगाने के बजाय जन-जागृति अभियान चलाने की बात कहकर पल्ला झाड़ने में ही अपनी भलाई समझते हैं, जिससे बात आई-गई हो जाती है।
सदियों से शराब के विषय में उसके भले-बुरे दोनों पक्षों को अमीर-गरीब सभी लोग देखने-सुनने और लाभ-हानि को भली-भांति समझने के बाद भी इसका सेवन करते आ रहे हैं। हमारे देश में राजा-महाराजों के ज़माने से ही शराब कारोबारियों ने देश की जनता के स्थिति का आंकलन कर उसकी नब्ज को अच्छे से पकड़कर उनके छोटे-बड़े के स्तर के हिसाब से सस्ती-महंगी शराब की व्यवस्था रख छोड़ी, जो आज भी बदस्तूर जारी है। शराब को देश की कई सरकारें अपनी आमदनी का सबसे बड़ा जरिया बताते हैं, लेकिन यह समझ से परे है कि वे यह क्यों भूल जाते हैं कि शराब की लत तो सबसे अधिक गरीब को लगती है, जिसका खामियाजा उसका पूरा परिवार भुगतता है। जिसके कारण उनके घर-परिवार में मारपीट, लड़ाई-झगड़े का तांडव मचा रहता है। ऐसे में उनके बच्चे भी पढाई-लिखाई छोड़ उनके जैसा आचरण करने लगते हैं, जिससे पूरे परिवार को बर्बाद होने में समय नहीं लगता।
आज यह सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि जहाँ पहले शराब को आदमी लोगों का शौक माना जाता था, वहीँ अब क्या औरत, क्या नवयुवक, क्या नवयुवतियाँ सबका शौक बनता जा रहा है। इसमें क्या अमीर क्या गरीब कोई भेद नहीं। सब अपनी-अपनी हैसियत से बढ़कर कच्ची-पक्की जैसे भी मिल रही है 'एन्जॉय' का नाम देकर गटके जा रहे हैं, गटके जा रहे हैं?
आप भी निश्चित ही अपने आस-पास ऐसे कई किस्से-कहानियां सुनते और आँखों से देखते होंगे, इस विषय में आप क्या कहेंगे?