आज कुछ मन खट्टा हुआ तो दैनंदिनी के लिए इतना ही कि -
बचपन में वह कभी रोता-हँसता कभी उछल-कूद करता
कभी खेल-खिलौने छोड़ किसी चीज की हठ कर बैठता
उछल-उछल कर सबको विचित्र करतब दिखलाता
हँस.-हँस, हसाँ-हसाँकर सबके मन को खूब लुभाता
वाह! कितना सुन्दर प्यारा बालक सभी उसे कहते
हाय ! बुढ़ापा आया पास उसके कोई नहीं फटकते
जवानी में जन-जन की सेवा कर वह खुशियां बाँटता
टूटे-बिखरे घरों को जोड़ना वह अपना कर्म समझता
परोपकार को जिसने एकमात्र जीवन लक्ष्य बनाया
अपना सुख भूल दुःखियों का सुखदाता कहलाया
अब उसी जन-जन के सेवक को सब गए हैं भूलते
हाय ! बुढ़ापा आया पास उसके कोई नहीं फटकते
कर सकता नहीं कोई काम वह असहाय बन गया
जीवन काल में देखा सपना उसका चकनाचूर हुआ
काल के मुँह बैठा वह घड़ियाँ मौत की गिन रहा
कितना मतलबी जग यह हरपल यही सोच रहा
देर से समझा उसके आगे-पीछे लोग क्यों थे घूमते
हाय ! बुढ़ापा आया पास उसके कोई नहीं फटकते