श्रम साधक को विश्राम नहीं
कडी़ धूप में मेहनत करते ,
सर्दी में भी नहीं वे थकते |
कभी बनातें सड़कें-गलियाँ,
कभी तोड़ते कड़ी चट्टान
करते कभी आराम नहीं ,
श्रम साधक को विश्राम नहीं |
मेहनत हीं है उनकी रीत ,
लेते नहीं कभी वे भीख |
मेहनत से ही खाते हैं ,
चौराहे पर सो जाते हैं |
कर्म में रहते सदा वे लीन,
आजीवन रहतेे वे दीन |
मिलता उचित सम्मान नहीं ,
श्रम साधक को विश्राम नहीं |
नंगे पाँव चलाते रिक्शा ,
नापते मीलों दूर सफर,
मंजिल तक सबको पहुचाते,
स्वंय की मंजिल से होते दूर |
कभी बनाते अद्भुत ताज़,
फिर भी दाने को मोहताज़
बेवस व लाचारी में भी,
स्वाभिमान से समझौता स्वीकार नहीं,
श्रम साधक को विश्राम नहीं |
कहीं कोई पूँजीवादी,
ऐय्यासी में होते चूर |
कहीं उड़ाते पैसे, तो
कभी चैन की निद्रा से होते दूर |
वहीं कोई मजदूर,
सुख- सुविधाओं से दूर |
रहते वे खुशहाल,
चैन की नींद वे सोते |
नींद की गोली उन्हें स्वीकार नहीं,
श्रम साधक को विश्राम नहीं |
बेटियाँ उनकी करती मजदूरी,
वस्त्र भी होते फटेहाल
इन सबसे दूर ,
कर्म में रहती वे मगरूर ,
कहीं कोई भेड़िये सी नजर,
नोचने को रहते तैयार..
हाय ! कैसी विडंबना,
मानवता भी इनसे ,
होती शर्मशार नहीं,
इन साधकों की,
सुनता कोई गुहार कहाँ ?
श्रम साधक को विश्राम कहाँ ?
स्वरचित मौलिक : कमला सिंह🙏