बदलाव स्रष्टि का एक ऐसा नियम जो रहता है सदा अटल , यह बदलाव आदि जीवन में होता था जब प्राणी था वानर, वानर से मानव का सफ़र भी था एक बदलाव, जब मानव आता है माता के भ्रूण में तब भी होता है उसका बदलाव, वह बदलता है भ्रूण से शिशु के रूप में, शिशु से बालक..
ईश्वर का ही है वरदान यह बदलाव में तो क्यों बचता है, व्यवहार में मानव बदलाव से, कहने को २१वि शताब्दी है, पर नारी पुरुष का भेद, जात-पात का भेद अभी भी बाकी है,....
जब अधिकारों की बाबत कुछ पूछा जाता है तो यह मुख से निकल ही जाता है की, नारी को पुरुषो से निम्न स्थान ईश्वार से ही आया है!
विकासक्रम कि समानता है दोनों में समान, करते है क्यों फिर यह भेदभाव, नैसर्गिक न्याय तो मिलता है दोनों को समान, अपने से अधिकार को देने पर क्यों लग जाता है विराम।
जब बारी आती है उसकी के वह रूढ़िवादिता को छोड़े संकीर्णता से मुख मोड़े, तब वह नया शिगूफा छेड़ता है के यह हमने नही नियम बनाया है यह तो पूर्वजो से आया है।
प्रश्न यह उठता है की जब ईश्वर ने ही यह सत्य को स्वीकारा है, बदलाव से पूर्णता का अर्थ बतलाया है, तो यह मानव का ही झूठा इरादा है की हमको नही है हक कि यह बदलाव का अधिकार हमने नही पाया है, बदलाव तो निश्चित है यदि सौम्यता से नही तो क्रांति से आया है, तो क्यों न उससे करे मित्रता यदि यह अवसर हमको मिल पाया है!