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तुम्हारा रूठना

25 सितम्बर 2015

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रूठना और मनाना जैसे ज्वार और भाठा पूर्णिमा की रात में तड़प कर उठती हुई लहरों सी नाराजगी तुम्हारी सारे बन्धन तोड़ कर बहा ले जाती मुझे तुम्हारे प्यार के सागर में उठाती गिराती भिगाती ज्वार सी तीव्र बेलगाम तुम्हारी बेबाक बातें थपेड़ों जैसी लगती हैं। मैं शांत किनारे सा अविचल तर बतर भीगता जाता हूँ सब कुछ सुनते सहते मुझे विश्वास है सुबह जब सूरज आएगा नई रौशनी लिए तुम फिर वही साथी बनकर छुओगी मेरे हाथों को स्नेह से आहिस्ता आहिस्ता जब तुम मान जाओगी हमारा जीना साथ ही लिखा है विधाता ने।।। संजय।।।।

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सुन्दर रचना के लिए बधाई!

25 सितम्बर 2015

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