जब नहीं थे तुम मेरी ज़िंदगी में,
कुछ अधूरी थी मैं क्योंकि...
मेरे बाईं ओर एक ही दिल धड़कता था,
जो की मेरा था।
अकेला था, दिल क्योंकि...
उससे बतियाता नहीं था, कोई दूजा दिल।
मगर बात एक शाम की है,
जब मुझे तुम्हारी आहट मिली...
मेरे बाईं ओर दो दिल रहने लगे थे।
एक तुम्हारा दिल और एक परछाई,
जो मेरे दिल की थी।
हां मेरे दिल की सिर्फ़ परछाई...
क्योंकि उसका असल रूप,
तुमने मांग लिया था, और
मैं मना भी नहीं कर पाई थी।
मैं पूरी होने लगी थी, तब
तुम मेरी ज़िंदगी में आए जब।
अब तो मैं क्या ही कहूं...
मैं ही नहीं, मुझे मेरी ज़िंदगी का
हर हिस्सा हसीन लगने लगा था।
हर पल मेरे आस पास...
चिड़िया चहचहाती थी।
जिन कलियों पर मेरी नज़र पड़ती...
कुछ ही क्षण में वो खिल कर फूल हो जाती थी।
ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं...
ज़िंदगानी होने लगी थी।
फिर एक दौर आया...
जब ये बातें धीरे धीरे फीकी लगने लगी।
एक शाम की बात है...
जब मैंने महसूसा कि,
मैं अधूरी होने लगी हूं।
और ये अधूरापन शुरू भी हुआ तो तब,
मुझे तुमसे प्यार हुआ जब...।
भला प्यार होने के बाद कौन अधूरा होता है?
लेकिन मैं अधूरी होने लगी।
मेरे साथ कोरा मज़ाक हुआ,
जो शायद किसी के साथ न हुआ।
मुझे सिर्फ़ ज़िंदगी में नहीं,
ज़िंदगी के हर हिस्से में कमी नज़र आने लगी।
ये ज़िंदगी जो ज़िंदगानी हो चली थी...
अब वापस से ज़िंदगी में बदल गई।
तुम्हारे होते हुए भी,
मैं अधूरी होने लगी, क्योंकि...
मुझे मुझमें और मेरे ज़िंदगी के,
हर हिस्से में कमी दिखने लगी।
मुझे कमी दिखने लगी मेरे घर में,
जहां सिर्फ़ मैं रहती हूं, तुम नहीं।
मुझे कमी दिखने लगी मेरे कमरे में,
जिसे मैं तुम्हारे साथ साझा नहीं कर सकती।
मुझे अधूरी लगने लगी मेरी अलमारी,
जहां सिर्फ़ मेरे कपड़े हैं, बगल में तुम्हारे नहीं।
मुझे अधूरा लगने लगा है, अपना बिस्तर,
जहां मेरे सोने के बाद छूटे जगह पर...
तुम नज़र नहीं आते।
मुझे कमी नज़र आती है, मेरे उस तौली में,
जिसे मेरे नहाने से पहले ही नहा कर...
अपने गीले तन को पोंछ कर,
भिगाने के लिए तुम नहीं रहते।
मुझे कमी नज़र आती है, अपने कॉफी मग में...
जिसके एक ही में के दो सेट हैं, मगर
हर सुबह भरता सिर्फ़ एक है, क्योंकि
दूजे को पीने के लिए तुम नहीं होते।
बहुत पसंद है, मुझे मेरा बुक सेल्फ,
हो भी क्यों न...
उसमें रखी आधी किताबें तुम्हारी दी हुई है।
मगर अफ़सोस मुझे अधूरा वो भी लगता है,
उसे पढ़ तो लेती हूं, मगर...
उसमें निहित मुद्दों के ज़िक्र लिए पास तुम नहीं होते।
और क्या कहूं...
हर जगह मुझे तुम्हारी कमी लगती है,
ये ज़िंदगी तुम बिन अधूरी लगती है।
जितना भी कह दूं, कम लगता है,
महसूस लूं इन कमियों को तो आंख नम लगता है।
पर अब तुम कहते हो की समझदार हूं मैं,
तो ये सोच के खुद को समझाती हूं, कि...
'तुम साथ हो बस पास नहीं।'
ख़ैर जब इतना कह ही दिया है,
तो एक बात और कह ही दूं...!
दुनिया सुनेगी तो मुझे बेताब कहेगी,
इसलिए तुम्हें पहले ही कह देती हूं...
ये बात सिर्फ़ तुम खुद तक रखना,
एक कसम तुम्हें मैं देती हूं।
वो बात जो बात मैं कहने वाली हूं,
वो सुन कर तुम क्या सोचोगे?
ये बात बिन सोचे समझे मैं,
समक्ष तुम्हारे रख देती हूं।
और वो ये की...
जब आईना रख कर सामने
अपने बालों को मैं संवारती हूं।
मुझे...
मुझे...
शर्म आ रही है, कैसे कहूं...
तुम क्या सोचोगे... मैं ये कैसे न सोचूं?
मन मेरा इतना हिचकता नहीं,
मगर इसमें भी गलती तुम्हारी है।
करते मुझसे मुहब्बत हो, और
दुलारते नन्ही बच्ची के जैसे...
जैसे ही रखूंगी मैं अपनी बात,
तुम पक्का सोचोगे एक ही बात...
की तुम्हारी बच्ची अब कच्ची नहीं रही।
अब छोड़ो तुम्हें मैं क्या ही सताऊं...
अपनी बात तुमसे कह ही देती हूं,
और वो ये की...
जब आईना रख कर सामने
अपने बालों को मैं संवारती हूं।
सूने लगते हैं, मेरे मांग मुझे...
जब शाना से उन्हें मैं गाहती हूं।
ज़रा सा कर देते इन्हें लाल,
कितनी ही खिल जाती मैं...।
अभी तो एक तिल सी हूं,
तब वुलर झील हो जाती मैं।
ऐसे तो मैं बड़ी आधुनिक हूं,
मगर इस मामले में ज़रा भी नहीं।
एक दफा हक तो दो मांग भरने का...
पांच चुटकी में ही छः इंच तक भर जाऊंगी मैं।
कितनी सारी उलझनें हैं, मेरी
क्या इन्हें हल तुम कर सकोगे..?
तुम भी बड़े नादान हो साथी,
थोड़े थोड़े में घबरा जाते हो।
अब तुम भी सोचोगे...
एक नहीं सौ कमियां हैं, मुझको
अब भला सबको तुम पूरा कैसे करोगे?
तुम सोचो ज़रा तो समझ आएगा...
तब ये सारी कमियां आप ही भर जाएंगी,
जब तुम मेरी मांग भरोगे।
हां जब तुम मुझसे ब्याह करोगे।।