( देखा होगा अक्सर मां-बाप और उनके प्यार को। पर क्या आंका है... कभी उनके अंदर छिपे एक पति-पत्नी और उनके प्यार को..? अब ज़रा ग़ौर करिए...)
पति लिखता है अपनी पत्नी को कि...
कभी तू ये न सोचना
तुम्हारे प्रति मेरा प्यार,
जिंदगी की भागदौड़ में
कम होता चला जाएगा।
चलती सांसों के साथ
तुम्हारे प्रति हमारा प्यार,
और बढ़ता चला जाएगा।
बस वक्त के साथ प्यार करने का,
कुछ अंदाज बदल जाएगा।
कल प्यार इतना था कि,
जताए बिना रह नहीं सकते थे।
आज प्यार इतना है कि,
जता नहीं सकते।
बुढ़ापे में मुझे अपनी जिंदगी का,
आखरी आसरा समझ कर
कभी मत झेलना।
बल्कि मुझे अपनी जिंदगी का
फैसला समझ कर मुझ पर,
हमेशा हक जताती रहना।
जब तुझसे दूर हम जाए तो
अपनी जिंदगी का...
हिस्सा मात्र समझ कर,
मेरी फिकर मत करना।
बल्कि अपना हमकदम समझकर,
हर कदम पर मेरी
कमियों को महसूस करना।
जब जन्मदिन हमारा आए तो,
हमारे लिए महफिल सजाए
रोशन ना करना।
बुढ़ापे तक जब साथ जीते आए तो,
बस हाथों में हाथ डाले,
मुझे अपने आंचल में समेट
साथ मरने का वादा कर देना।
(अपनी पत्नी की हालात से बेखबर पति द्वारा भेजे गए पत्र आईसीयू में भर्ती, जिंदगी और मौत की जंग में
पीसती पत्नी को मिलता है, तो )
आंखों में झिलमिलातीआंसू लेकर
होठों पर उसका नाम लेकर
दिल में टूटते अरमान लेकर
कप कपाती हाथों से
पत्नी लिखती हैं अपने पति को -----
यही दास्तां है जिंदगी की
बढ़ती वक्त के साथ-साथ,
एक हमसफर का प्यार कहीं
खोता चला जाता है।
बस प्यार तो बच्चों के,
मां-बाप का रह जाता है।
और फिकर मां-बाप के
जिम्मेदारियों का रह जाता है।
रूमानी कहीं खोता हुआ,
गुम सा हो जाता है।
एक दूजे के प्रति प्यार में,
दूरी आता जाता है।
जिम्मेदारियों में उलझे इस जिंदगी में,
इस दूरी का पता नहीं चल पाता है।
आज एक मां नहीं पत्नी कह रही है...
अरमान वही मेरे मन में है,
जो लीखी तुमने है।
प्यार वही मेरे दिल में है,
जो तेरे दिल में है।
लेकिन..................
क्या करें ऐ हमनवाब,
जिंदगी कहां अपने वश में है।
हम डूबते चले गए,
जिंदगी रूपी नदी में।
किनारे तक पहुंचने का,
हौसला टूट गया।
जब याद आया साथ,
जीने मरने के वादे का तो
हिम्मत जुट गया।
जब हिम्मत ने साथ दिया तो,
जिंदगी की नदी का किनारा खो गया।
आखिर कब तक...
आखिर कब तक...
तैरते रहें इस नदी में,
किनारे की चाहत में,
हमनवाब अब तो हिम्मत ने भी
मुंह मोड़ लिया।
हाथों ने लिखा ही था,अलविदा
और कुछ ही देर में...
धड़कन थम गया।
"क्युं खुदा ने किया ऐसा नाइंसाफी
ये सोचकर मेरी आंखें भर आई
मानो छूट रहे हों
जन्मो-जन्मो के साथी"।।
( मेरे छोटे से उम्र का तजुर्बा कहता है- पति पत्नी का प्रेम पूरी जिंदगी में दो वक्त अगाध होता है। एक "विवाह के प्रारंभिक दिनों में" तथा दूसरा विवाह के "अंतिम दिन" अर्थात "वृद्धावस्था में"। इन दो वक्त के मध्य तो वह पति पत्नी नहीं, मात्र एक मां बाप बन कर रह जाते हैं।... हमारे आज के युवा पीढ़ी को चाहिए, कि मां बाप के साथ एक बार गुस्ताखी करें तो शायद खुदा माफ भी कर दे। पर उनके अंदर बैठे पति-पत्नी को एक दूजे से कभी दूर ना करें। इस गुस्ताखी को खुदा तो क्या आपका खुद का आत्मा कभी माफ नहीं करेगा। जैसा कि- बागबान ( पिक्चर) में दिखाया गया है।।)
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