हवाओं के संग चली आ रही थी
दुपट्टे से ज़मी को सहालाते हुए,
वह शायद ज़ल्दबाजी में थी।
कुछ कर नहीं सकती अपनी,
खुली बिखरती जुल्फ़ों का
इस बात की उन जुल्फ़ों को...
आज़ादगी जो थी।
बस मौका पाई और मनचले ढंग से,
इधर तो कभी उधर बिखरने सी लगी।
कर भी क्या सकती थी वो,
उनकी हाथ जो दोनों खाली न थी।
एक में भर के समान तो,
दूजे में थी चूड़ियों की दुकान।
अब तलक तो ठीक थी मगर,
अब तो हद ही हो गई।
उन्हीं की जुल्फ़ें उनके ही नैनो को,
बड़े ही अज़ीब अंदाज़ में...
छेड़ने अब लगी।
अब वह चिढ़ गई,
अपनी ही जुल्फ़ों से खींज गई।
हाथों से तो कुछ कर नहीं सकती,
तो अपने अंदाजो का...
उन्होंने सहारा लिया।
कभी फूंक मार मार उड़ती रही तो,
कभी मुखड़े अपने झटकती रही।
एक बात पहले बता दूं मैं,
उनकी फुक बड़ी मगरूर भरी थी।
पर झटकन में बड़ी नूर भरी थी।
इस अदा को देख धाएं मैं,
कुछ इस कदर हुआ मानो...
मेरे लबों पे ओस की ठंडी बूंद पड़ी थी।
उनके कदम बहुत आगे बढ़ चुके थे,
हवाओं ने भी रुख मोड़ लिया था।
पर जाने क्युं उनकी जुल्फ़ें अभी भी,
उन्हीं के नैनो को छेड़ रही थी।
वो बार-बार उड़आती रही जुल्फ़ें,
वो हर दफ़ा इन्हें छेड़ती रही
बार-बार झटकती रही मुखड़े,
पर वह हर दफा उनके
मुखड़ों पर ही मटकती रही।
उनका और उनके जुल्फ़ों का ये,
रिझाना खिजाना देख कर
पल भर को ऐसा ख्याल आया,
मानो जुल्फ़ों में मैं कृष्ण बना हूं,
और वह राधा सी बन गई।
अभी अभी तो ख्यालों में डूबे थे,
अभी-अभी ही होश उड़ गई।
ना जाने हवा का कौन सा झोंका
उनके दुपट्टे को छेड़ गई।
और पलक झपकते ही उनके
कंधे से आंचल फिसल गई।
फिर चौक कर वह अपनी
सहमी सी निगाहें उठाई,
फिर चारों ओर घूमाई
कहीं किसी की नज़रें,
मुझ पर ही तो नहीं अडीं।
हाये! हाये अब मैं क्या कहूं ....
सहमी सहमी सी उठती वो
धूसर सी निगाहें,
मानो अभी अभी नभ से
वर्षा थमी हो।
वो गुलाबी आंचल,
मानो गुलाबी शाम सी हो।
आंचल पर जड़ी जो सिल्वर बूटियां,
मेरे ख्यालों के आलम में
सितारों की तस्वीर बना रही थी।
वह फिसलती आंचल से झलकता
उजला,कोमल,खिला योवन और बदन
मानो उस गुलाबी शाम की महफिल में,
सितारों ने अपनी प्रिय सखी
चांदनी को ले आई हो।
एक बार तो जी करता की,
जाकर करीब से दीदार करूं....
फिर हाले हाले से आंचल उठाओ,
और कंधे पर सजा दुं।
फिर संकोचता हूं कि कहीं,
उनकी उंगलियों की निशान
मेरे गालों पर ना छूट जाए।
फिर एकाएक ख्याल आया
जो अपने जुल्फ़ नहीं सवार सकती,
वह इस अलिफ से क्या गुस्ताख़ी करेगी।
लेकिन यह क्या वो तो...
मेरी तरफ़ ही आ रही थी।
जैसे कुछ कहना चाह रही थी...
इतने में मेरे पास आई
और कहने लगी...
भैया घंटा घर चलोगे क्या??
मेरे चेहरे पर लंबी मुस्कान आई,
जैसे मुझे किसी कुफ्ल कि
खोई हुई चाभी मिल गई।
अब घंटाघर की ओर बढ़ते रहा...
फिर फिर उन्हें तकते रहा...
घंटाघर अभी पहुंचा ही था,
उन्होंने कहा...
भैया बस अब रोक दो यहां।
और बता दो कितना हुआ??
मेरे मुस्कुराते जुबां ने कहा
😊😊जी जितना दे दीजिए।
मगर ये तो गजब हो गया,
बड़े मगरूरीयत से कह पड़ी
क्यों 10-20000 दे दुं।
भैया औटो है, या हवाई जहाज ?
हिचकीचाते हुए कहा ज्ज्जी 20रु।
अब वो सामान उतार कर जाने लगी,
कदम कदम पर डगमगाने लगी।
मैंने कहा जी घर तक पहुंचा दूं..?
जवाब आया जी नहीं!
वो फिर जाने लगी,
कदम कदम पर डगमगाने लगी।
मैं भी बिन सोचे बिना समझे
फटाक से कह पडा...
जी जरा संभल के फिर एक बार,
आंचल ना फिसल जाए।
खुदा ना करे अब इस बार
किसी शौहदे की नियत
ना फिसल जाए...😍
उन्होंने झटके से पीछे मुड़ देखा,
निगाहे तो मगरूर थी ही पर
इस बार झटकन में भी नूर ना थी।
मुझे तो लगा अब,
तसव्वुर हकीकत में तब्दील होगा🙄
इस तथाकथित अलीफ को,
तमाचा जरूर मिलेगा😨।
मगर वह शायद ज़ल्दबाजी में थी,
दुपट्टे से ज़मी को सहलाते
चली जा रही थी,
वो शायद ज़ल्दबाजी में थी।
हां वो ज़ल्दबाजी में थी।।
आंचल सोनी 'हिया' ✍️🌸