मुश्किलों का दौर है संभल कर चल,
अपनों का ही शोर है, संभलकर चल।।
माना लिपटी,दुश्वारियां, तुझ से लय दर्प, सी,
विषधर का ही तो शहर है ,सिमट कर चल।।
है तो खड़े, डसने को विष लिए भुजंग ,,
तू बात कर रहा,अमृत की क्यू, ज़हर सा बन।।
बहुत हुआ तो सहला दिया जाएगा घाव को,
पर न मिले जमाने से ये,उम्मीद न कर।।
भुला दिया जाएगा तू घड़ी भर मे,
यादाश्त की बात जमाने से ,तू न ही कर।।
पहले बहुत पहले थी जिंदा इंसानियत,
पर आज जिंदा इंसान,, हँसी की बात न कर।।
चल छोड़ बात संदीप वफा की बात यहा,
कर भले किसी से भी ,पर उम्मीद न कर।।
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मौलिक रचनाकार,
संदीप शर्मा