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पुस्तक समीक्षा

20 जनवरी 2023

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       पुस्तक - "मुक्त परिंदे" मुक्तक संग्रह 
       रचनाकार - श्री रामदरश पांडेय 'विश्वासी'
       समीक्षक- लालबहादुर चौरसिया 'लाल' 

        "मुक्त परिंदे" पुस्तक जनपद अंबेडकरनगर के ख्यातिलब्ध रचनाकार, हास्य के पुरोधा कवि श्री रामदरस पांडेय 'विश्वासी' जी की सद्य:प्रकाशित कृति है। यह एक पुस्तक ही नहीं, वरन एक ऐसी पुष्प वाटिका है जिसमें विविध रंग व विविध गंध के पुष्प अपनी आभा से साहित्य उपवन को आह्लादित कर रहे हैं।  पुस्तक "मुक्त परिंदे" मुक्तकों का एक पिटारा है। एक सौ बारह पृष्ठों में फैली,पूरे के पूरे पांच सौ सात उत्कृष्ट मुक्तकों से लबरेज यह पुस्तक विशिष्ट है।
        पुस्तक का नाम करण ही  पुस्तक की प्रासंगिकता को व्याख्यायित करने में सक्षम है। मुक्तक मूल रूप से चार पंक्तियों की एक सूक्ष्म कविता होती है। इन्हीं चार पंक्तियों में कवि अपनी पूरी बात कहने का सफल प्रयास करता है। श्री विश्वासी जी ने भी वही किया है। वो भी पूरा सलीके के साथ। विश्वासी जी मूलतः हास्य कवि हैं। किंतु इनकी "मुक्त परिंदे" पुस्तक में हास्य का बिल्कुल समावेश नहीं है। जीवन के विभिन्न आयामों को छूने का भरपूर सार्थक प्रयास किया गया है। श्री विश्वासी जी ने समाज में जो कुछ देखा उसी को अपने मुक्तकों में उतारा वो भी बिल्कुल साफगोई के साथ। एक बानगी के तौर पर यह मुक्तक बिल्कुल गणित के सूत्र की तरह शत-प्रतिशत सत्यता के साथ आज के स्वार्थी रिश्तो को परिभाषित करता हुआ है-

मुसीबत  में  अपने   लोग  नाता  तोड़  लेते  हैं,
जो दिल के पास होते हैं  वहीं मुख मोड़ लेते हैं,
गजब इंसान की फितरत उन्हें गैरों से क्या लेना,
परिंदे  पालतू  आंगन  में  आना  छोड़  देते  हैं।।

    वास्तव में जब एक  कलमकार समाज की पीड़ा को अपनी कलम से कागज पर उकेरता है तो अपने साहित्यकार होने का पूरा का पूरा फर्ज अदा कर देता है। जब कविता में समाज को एक दिशा देने की बात कही गई हो। एक ऐसे दीप को प्रज्वलित करने की बात कही गई हो जिसके प्रकाश में संपूर्ण मानवता प्रकाशमान होती हो। तब समझिए कि कवि ने कवि धर्म का पालन निश्चित रूप से ईमानदारी के साथ किया है। वही बात विश्वासी जी के इस मुक्तक में देखें-

मस्जिद की बात कर न शिवालों की बात कर, 
कब क्या कहां हुआ  न  घोटालों की बात कर,
जीवन  थमा  है रोशनी.......लाने  की सोच ले, 
सब भूल करके  सिर्फ  निवालों की बात कर।।

आज के इस भौतिक युग में कवि की निगाहें मानवीय  संबंधों पर टिकी हैं। कवि उस समय अत्यंत निराश होता है जब एक बूढ़ी मां के चार चार बेटे उसे संभालने से इंकार कर देते हैं तो विश्वास ही जी की कलम बोल पड़ती हैं-
जीवन  में  दुआ  मां  की  खाली नहीं जाती,
यह  बात  भी  भगवान  से टाली नहीं जाती,
अकेले एक मां ही चार बेटों को पाल लेती है,
उन्हीं चारों से एक मां कभी पाली नहीं जाती।।

      श्री विश्वासी जी के मुक्तक शब्द संधान, भाव, बिंब, अभिव्यंजना से परिपूर्ण है। कहीं प्रेम की पराकाष्ठा है तो कहीं विरह का महासैलाब भी है। एक विरहिणी के व्यथा का चित्रण प्रस्तुत करता हुआ यह मुक्तक देखें-
चांद ढलता रहा....... रात रोती रही,
चंद्रिका मोतियों को कि पिरोती रही,
मेरे अरमां मचलते .......रहे रात भर,
आंसुओं से  विरह  को मैं धोती रही।।

     रचनाकार श्री विश्वासी जी ने हमेशा सदाचार का पाठपढ़ा व पढ़ाया है। समाज को एक दिशा देने का प्रयास किया है,जो कि एक कवि का मूल धर्म होता है। कविता हमेशा समाज की रक्षा करती है। विश्वासी जी ने विभिन्न तरीकों से मानव को महामानव बनाने का भरपूर प्रयास किया है। प्रतीकों के माध्यम से एक सशक्त समाज का खाका खींचने का जो प्रयास है उसका एक उदाहरण देखें-
अवगुणों में भी गुणों की लहर डोलती,
काली कोयल है  कितना मधुर बोलती,
बन सको  तो  मधुर  बांसुरी  तुम  बनो,
छिद्र रहकर भी सबका हृदय खोलती।।

    जीवन के हर पहलुओं को स्पष्ट करते हुए- चांद, तारे, नदी ,पर्वत, झरना, बाग, बन,फूल, कोयल ,दीपक ,उजाला, संबंध, मर्यादा, प्रेम ,विरह, बेटी,जैसे विभिन्न बिंदुओं को स्पर्श करने के साथ साथ कवि श्री विश्वासी जी ने अपना ध्यान गांव की तरफ भी आकृष्ट किया है। जिस गांव में अभाव में भी भाव है , बदहाली में भी खुशहाली है, प्रेम है ,भाईचारे एवं त्याग की पराकाष्ठा है। गांव की स्मृतियों की तरफ पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हुए श्री विश्वासी जी की यह पंक्तियां देखें-
"कभी खेती, कभी खलिहान, गलियां याद आती हैं।"

    रचनाकार श्री विश्वासी जी के मुक्तकों में कहीं-कहीं अध्यात्म का भी दर्शन हो जाता है। उनका पूरा का पूरा मानना है कि एक ऐसी परमसत्ता विद्यमान है जो पूरी सृष्टि का संचालन करती है। मानव माया, मोह, द्वेष, राग में भटक रहा है। विश्वासी जी ने आज के इस अंतर्जाल के युग में नौनिहालों के बिगड़ती आदतों से क्षुब्द होकर इस मुक्तक में कहते हैं-
लैपटॉप टेबलेट ने.........नंगा बना दिया,
बिगड़ा समाज जबसे... धंधा बना दिया,
मेहनत चरित्र संस्कार .....सब दफा हुए,
बच्चों को मोबाइल ने लफंगा बना दिया।।

    "मुक्त परिंदे" रूपी एक बृहद माला में पांच सौ सात मणियों के समान मुक्तकों  को पिरो कर कवि श्री रामदरस पांडेय विश्वासी जी ने जो बेहतरीन लेखन शैली का परिचय दिया है वह प्रशंसनीय है। यदा-कदा टंकण त्रुटियां जरूर हैं। किंतु मैं आश्वस्त हूं कि आज का पाठक टंकण त्रुटियों को सुधार कर पढ़ने में दक्ष है। श्री रामदरस पांडे विश्वासी जी की यह पुस्तक "मुक्त परिंदे" काल के साथ लंबी यात्रा करने में सक्षम हो। यही मेरी शुभकामना हैं। 
       
      -लालबहादुर चौरसिया 'लाल'
       मो. 9452088890
     (महामंत्री- विश्व हिंदी शोध एवं संवर्धन अकादमी आजमगढ़ इकाई)

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