"कथरी"........
"कथरी" का नाम जेहन में आते ही मन बरबस बचपन में लौटने लगा। उसी बचपन में जहां हमारा आमना सामना लम्बे समय तक कथरी से हुआ था। रात को भोजन के बाद कथरी जी का रोजाना दर्शन,जहां निद्रा देवी अपनी आगोश में ले लेती थी,आज भी याद है। हमें तो यहां तक याद है कि जब कभी रात में तेज हवा के कारण ठंड बढ़ जाती थी तो आधी कथरी बिस्तर के साथ-साथ आधी ओढ़ने के काम में आती थी और हम कुंडली मारकर कथरी में दुबक जाते थे। चारपाई पर बिछी, माँ के हाथो बनाई गई कथरी पे रोजाना सोना भला कैसे भूल सकता हूँ।
कथरी शब्द को हमने गूगल पर सर्च किया तो गूगल महाराज ने उसका अर्थ बताया कि "पुराने समय में फटी साड़ी-धोती व फटे कपड़ों को सिलकर बनाया गया बिस्तर"। बस, इससे ज्यादा गूगल महाराज ने हमें कुछ नहीं बताया और बता भी क्या सकते थे।
अलग अलग स्थानो पर अलग-अलग नामों से जानी पहचानी जाने वाली कथरी का इतिहास बड़ा ही रोचक है।कही "बिछौनी" कहीं "सुजनी" कही "गुदड़ी" कहीं "कंथा" तो कहीं इसे "लेई" नाम से संबोधित किया जाता रहा है। आम बोलचाल में कथरी का "कथरी" ही प्रचलित नाम है। कथरी को प्रायः घर की बड़ी बुजुर्ग महिलाएं ही बनाती थी। एक कथरी को बनाने में काफी दिनों का समय लगता था। घर के पुराने प्रयोग रहित कपड़ों को एक में सिलकर उसे एक ढांचे का रुप दिया जाता था,जो चारपाई को कवर्ड कर सके। पुराने कपड़ों को आपस में सिल सिलकर बड़ा बनाया जाता था। जब एक आकार तैयार हो जाता था तब उस पर पुरानी साड़ियों की कयी परतें चढ़ाई जाती थी।कुछ अधिक गुणवती महिलाएं रंग बिरंगे कपड़ों से कथरी में सुंदर सुंदर डिजाइनिंग किया करती थीं। दोपहर के समय हर घर में कथरी की कारीगरी ही चलती रहती थी। कम लागत से तैयार होने वाली कथरी अनेक विशेषताओं से पूर्ण थी।इसे बिछाने और कही लेजाने में बड़ी ही आसानी होती थी।
कथरी का उद्भव मानव के विकास से जुड़ा है। मानव की तीन मूलभूत आवश्यकताए भोजन, कपड़ा, मकान के साथ साथ बिस्तर की भी एक आवशकता रही होगी। तब जाकर कथरी का उद्भव हुआ होगा। कथरी लंबे समय तक मानव की सहचरी बनी हुई थी और आज भी बनी हुई है। हाँ इतना है कि आज इसकी मात्रा सीमित हो गयी है। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। समय बदला। लोग बदले।आविष्कार होते गए। धीरे-धीरे कथरी का स्थान रूई से बने गद्दों ने लेना शुरु कर दिया। हालाकि रुई के गद्दे भी आज पुराने हो चले हैं। इनका स्थान फोम, स्पंज, हवा, स्प्रिंग इत्यादि से बने भौतिक बिस्तरों ने ले लिया है। आज लगभग सभी घरों में गद्दे पहुंच चुके हैं। कथरी धीरे-धीरे अधिकांश घरो से निकलने की फिराक में कोने में पड़ी पड़ी कराह रही है।
किन्तु, हे कथरी! हम तुम्हें कैसे भूल सकते हैं।आज तुम मेरे साथ भले ही नही हो, तुम्हारी यादें हमारे जेहन में कैद है। एक समय ऐसा भी आएगा जब तुम्हें लोग सिर्फ म्यूजियम में ही देख सकेंगे। जहाँ तुम पारदर्शी सीसे से घिरी, कृत्रिम प्रकाश के बीच अपनी गौरव गाथा के आसन पर आसीन होकर लोगो को दर्शन दिया करोगी। लोग तुम्हें देखकर और यह सोचकर श्रद्धा से सिर झुका लेंगे कि कभी हमारे पूर्वज इसी पर सोते थे.......
✍️-लालबहादुर चौरसिया "लाल"
गोपालगंज, आजमगढ़
9452088890