आज चांदनी दरीचे से छनती हुई
हलकी सी मेरे चेहरे पर पड़ने लगी
मैं अपने कमरे में बैठी
दूर से दालान में झाँकने लगी
जहाँ मैं तुम्हारे इंतज़ार में
चाय की दो कप लिए बैठा करती थी
आज हवाओं में
बिलकुल वही आहट थी
जैसे तुम अक्सर शाम में
चुपके से आ कर
मेरी आँखों को अपने हाथों से
बंद कर दिया करते थे
और मैं तुम्हारे एहसास से
हर दम पहचान लिया करती थी तुम्हें
शायद ये आहट नहीं
तुम ही थे .............................
हर दिन तुम्हें याद कर
तुम्हें पुकारती रही
शायद मेरी सदा तुम तक पहुंची हो
और तुम फिर लौट आए हो
दालान में रखी उस कुर्सी पर बैठे
मुझे दूर से ही देख रहे हो
जहाँ मुझे बैठे हुए
एक अरसा बीत गया
अशीमिरा 31/3/19 01: 30 PM