बाज़ार ए इश्क़ की सैर कर आए
वफ़ा ओ बेवफ़ाओं से मिल आए
बहुत हुजूम ए साहूकार था वहाँ
हर एक इंसां ख़रीदार था वहाँ
दिलों के ढ़ेर चंद रुपियों में
सरे आम बिक रहे थे
ख़ुशी ओ मायूसी का
मुज़ाहरा हो रहा था वहाँ
कोई अपना दिल
ख़ुशी से फ़रोख़्त करता
कोई मायूस हो के बेचता
कोई कच्ची उम्र वाला
कोई अधेड़ उम्र वाला
कही नक़द सौदा है
कही किश्तों में बटवारा
मैं हैरां परेशां घूमती यहाँ वहाँ
ऐसी तिजारत देखि ना कभी
मुझे कुछ समझ नहीं आता
ये ख़रीद ओ फ़रोख़्त दिलों का
किसी की ख़ामोश चीखों ने
दिलो और ज़हन की
समाअत बंद कर दी [सुनने की क्रिया]
किसी को मजबूरियों ने गूंगा था कर दिया
कोई रुपयों के आगे अंधा था
हर कोई लाचार ओ बेबस था
ना जाने ये कैसा क़फ़स ए इश्क़ ए बाज़ार था
अशीमिरा 25/3/19 11:30 AM