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1 किताब
उठ, खड़ा हो जा और चल सपनों को इक पहचान दे।कंपितों की भावना, उद्वेग मे क्यों बह गया,जो सोच कर आया था वह संकोच मे क्यों रह गया,स्व मे इतना दृढ़ नहीं प्रतिशोध की भाव भंगिमा,जो रोष को अंजाम देने चल दिया इक
गफलते मत पाल जिंदगी में की कोई हम मिलेकोई है ही नही की जिसे तू सजदा करे
पांव पसारे पंडा बैठे मांग रहा जीवन उद्धार, पंडित मांगे दान की खटिया, नरक न होगा हे जजमान,रोड किनारे बैठ भिखारी मांग रहा सुख भोगे भाई,अब तो संकट हरलो मोहन जीवन का न हो अपमान।