तन और मन की देहरी के बीच भावों के उफनते अथाह उद्वेगों के ज्वार सिर पटकते रहते है। देहरी पर खड़ा अपनी मनचाही इच्छाओं को पाने को आतुर चंचल मन, अपनी सहुलियत के हिसाब से तोड़कर देहरी की मर्यादा पर रखी हर ईंट बनाना चाहता है नयी देहरी भूल कर वर्जनाएँ भँवर में उलझ मादक गंध में बौराया अवश छूने को मरीचिका के पुष्प अंजुरी भर तृप्ति की चाह लिये अतृप्ति के अनंत प्यास में तड़पता है नादान है कितना समझना नहीं चाहता देहरी के बंधन से व्याकुल मन उन्मुक्त नभ सरित के अमृत जल पीकर भी घट मन की इच्छाओं का रिक्त ही रहेगा। #श्वेता सिन्हा