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संबन्धों में

12 अप्रैल 2015

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संबन्धों में ‘महत्व’ और ‘विवशता’ तथा nksuksa का अपना विशेष स्थान है। एक, व्यक्ति अपने कटस्थ को कितना ‘महत्व’ देता है, यह उसके ऊपर निर्भर करता है तथा दूसरा, अपने समीपस्थ की मजबूरी को कितना समझता है तथा दोनों को एक-दूसरे पर कितनी विश्वसनीयता है? दो संबन्धियों में ये दोनों गुण हों तो निःसंदेह संबन्ध गोंद चिपकी हुई वस्तु की भांति जन्म-जन्मान्तर तक प्रगाढ़ रहेंगे। उदाहरण स्वरूप ‘ब’ और ‘स’ दोनों की मित्रता थी किन्तु न दोनों एक-दूसरे की विवशता समझते थे न ही महत्व दिया। इसी कारण दोनों का अहंकार बीच में आ गया और परिणामतः दों का जीवन मार्ग पृथक हो गया। वहीं एक और उदाहरण लें कि ‘प’ और ‘ग’ के बीच मित्रता है। इनमें ‘प’ ‘ग’ को बहुत ही महत्व देता है किन्तु उसकी मजबूरी नहीं समझ पाता। जबकि ‘ग’ ठीक इसके विपरीत है वह ‘प’ की लाचारी तो समझता है किन्तु उसे महत्व नहीं देता। यदि व्यक्ति किसी को स्व से अधिक महत्व देता और सामने वाले से आपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिलती तो यह बात उसे दुःख पहुंचाती है तथा उसके स्वाभिमान को ठोकर सी प्रतीत होती है परिणामतः संबन्धों में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इन दोनों के साथ भी यही है । ‘प’ के साथ कुछ ऐसा ही है। ‘ग’ को लेकर वह बेहद चिंतित रहता है। वह चाहता है कि मैं जो भी करूं-कहूं ‘ग’ तुरंत उसकी सकारात्मक प्रतिक्रिया दे किन्तु ‘ग’ के लिए ‘प’ तथा उसकी भावनाएं या उसकी गतिविधियां उतनी महत्वपूर्ण नहीं लगतीं। ‘ग’ के लिए ‘प’ की अपेक्षा और भी कई सारी बातें या कार्य अधिक महत्वपूर्ण लगते है अतः वह ‘प’ की ज्यादातर अवहेलना करता रहता है। चूंकि ‘ग’ ‘प’ की मजबूरी समझता है अतः उसे ‘प’ से कोई समस्या नहीं होती किन्तु ‘प’ के लिए ‘ग’ द्वारा अवहेलित किया जाना संसार की सबसे बड़ी घटना लगती है इसलिए वह ‘ग’ से सदैव असंतुष्ट रहता है। यहीं ठीक एक उदाहरण ‘क’ और ‘ल’ का है। दोनों एक-दूसरे को स्वयं से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं तथा एक-दूसरे की विवशताओं को भी समझते हैं। यही कारण है कि दोनों के संबन्धों में कभी खटास नहीं आई। दूर-दूर रहकर भी दोनों प्रसन्न रहते हैं। दोनों का एक-दूसरे पर अटल विश्वास है। इन्हीं तीनों उदाहरणों से यह प्रमाणित तो हो ही रहा है कि ‘महत्व’ और ‘विवशता’ का संबन्ध में कितना योगदान है। इन दोनों के आलावा दो और महत्वपूर्ण भाव हैं 'विश्वास' तथा ‘अहंकार’। इनमें जहां ‘विश्वास’ संबन्ध को प्रगाढ़ता की ओर प्रशस्त करता है वहीं ‘अंहकार’ विच्छेद करने के लिए आग में घी का काम करता है। ‘ब’, ‘स’ और ‘प’ के साथ समस्या यह है कि वे अपने संबन्धी से अधिक विशिष्टता ‘अहंकार’ को देने लगते हैं जिससे उनके संबन्धों में सदैव जटिलता बनी रहती है। वहीं ‘ग’, ‘क’ और ‘ल’ विश्वास की विशिष्टता के बल पर गहरे व अटूट संबन्ध स्थापित कर पाते हैं। इन तीन प्रकार के संबन्धों में दूसरे संबन्धी ‘प’ और ‘ग’ के संबन्ध ‘क’ और ‘ल’ के श्रेणी तक आसानी से पंहुच सकते हैं किन्तु इसके लिए दोनों को अपनी भावनाओं को एक-एक चरण आगे बढाना होगा। सहृदीय संबन्ध तभी बनेंगे जब ‘महत्व’, ‘विवशता की समझ’ तथा ‘विश्वास’ के पराग पड़ेंगे क्योंकि प्रेम की नैया राम के नहीं विश्वास के भरोसे तैरती है। संबन्धों में ‘महत्व’ और ‘विवशता’ तथा nksuksa का अपना विशेष स्थान है। एक, व्यक्ति अपने कटस्थ को कितना ‘महत्व’ देता है, यह उसके ऊपर निर्भर करता है तथा दूसरा, अपने समीपस्थ की मजबूरी को कितना समझता है तथा दोनों को एक-दूसरे पर कितनी विश्वसनीयता है? दो संबन्धियों में ये दोनों गुण हों तो निःसंदेह संबन्ध गोंद चिपकी हुई वस्तु की भांति जन्म-जन्मान्तर तक प्रगाढ़ रहेंगे। उदाहरण स्वरूप ‘ब’ और ‘स’ दोनों की मित्रता थी किन्तु न दोनों एक-दूसरे की विवशता समझते थे न ही महत्व दिया। इसी कारण दोनों का अहंकार बीच में आ गया और परिणामतः दों का जीवन मार्ग पृथक हो गया। वहीं एक और उदाहरण लें कि ‘प’ और ‘ग’ के बीच मित्रता है। इनमें ‘प’ ‘ग’ को बहुत ही महत्व देता है किन्तु उसकी मजबूरी नहीं समझ पाता। जबकि ‘ग’ ठीक इसके विपरीत है वह ‘प’ की लाचारी तो समझता है किन्तु उसे महत्व नहीं देता। यदि व्यक्ति किसी को स्व से अधिक महत्व देता और सामने वाले से आपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिलती तो यह बात उसे दुःख पहुंचाती है तथा उसके स्वाभिमान को ठोकर सी प्रतीत होती है परिणामतः संबन्धों में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इन दोनों के साथ भी यही है । ‘प’ के साथ कुछ ऐसा ही है। ‘ग’ को लेकर वह बेहद चिंतित रहता है। वह चाहता है कि मैं जो भी करूं-कहूं ‘ग’ तुरंत उसकी सकारात्मक प्रतिक्रिया दे किन्तु ‘ग’ के लिए ‘प’ तथा उसकी भावनाएं या उसकी गतिविधियां उतनी महत्वपूर्ण नहीं लगतीं। ‘ग’ के लिए ‘प’ की अपेक्षा और भी कई सारी बातें या कार्य अधिक महत्वपूर्ण लगते है अतः वह ‘प’ की ज्यादातर अवहेलना करता रहता है। चूंकि ‘ग’ ‘प’ की मजबूरी समझता है अतः उसे ‘प’ से कोई समस्या नहीं होती किन्तु ‘प’ के लिए ‘ग’ द्वारा अवहेलित किया जाना संसार की सबसे बड़ी घटना लगती है इसलिए वह ‘ग’ से सदैव असंतुष्ट रहता है। यहीं ठीक एक उदाहरण ‘क’ और ‘ल’ का है। दोनों एक-दूसरे को स्वयं से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं तथा एक-दूसरे की विवशताओं को भी समझते हैं। यही कारण है कि दोनों के संबन्धों में कभी खटास नहीं आई। दूर-दूर रहकर भी दोनों प्रसन्न रहते हैं। दोनों का एक-दूसरे पर अटल विश्वास है। इन्हीं तीनों उदाहरणों से यह प्रमाणित तो हो ही रहा है कि ‘महत्व’ और ‘विवशता’ का संबन्ध में कितना योगदान है। इन दोनों के आलावा दो और महत्वपूर्ण भाव हैं 'विश्वास' तथा ‘अहंकार’। इनमें जहां ‘विश्वास’ संबन्ध को प्रगाढ़ता की ओर प्रशस्त करता है वहीं ‘अंहकार’ विच्छेद करने के लिए आग में घी का काम करता है। ‘ब’, ‘स’ और ‘प’ के साथ समस्या यह है कि वे अपने संबन्धी से अधिक विशिष्टता ‘अहंकार’ को देने लगते हैं जिससे उनके संबन्धों में सदैव जटिलता बनी रहती है। वहीं ‘ग’, ‘क’ और ‘ल’ विश्वास की विशिष्टता के बल पर गहरे व अटूट संबन्ध स्थापित कर पाते हैं। इन तीन प्रकार के संबन्धों में दूसरे संबन्धी ‘प’ और ‘ग’ के संबन्ध ‘क’ और ‘ल’ के श्रेणी तक आसानी से पंहुच सकते हैं किन्तु इसके लिए दोनों को अपनी भावनाओं को एक-एक चरण आगे बढाना होगा। सहृदीय संबन्ध तभी बनेंगे जब ‘महत्व’, ‘विवशता की समझ’ तथा ‘विश्वास’ के पराग पड़ेंगे क्योंकि प्रेम की नैया राम के नहीं विश्वास के भरोसे तैरती है।

जितेन्द्र देव पाण्डेय 'विद्यार्थी' की अन्य किताबें

मनोज कुमार - मण्डल -

मनोज कुमार - मण्डल -

मानवीय संबंधों पर बहुत ही बारीक़ जानकारी भरा यह लेख | बहुत बहुत बधाई |

12 अप्रैल 2015

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