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"गज़ल

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वज़्न- 1222 1222 1222 1222, काफ़िया- आह, रदीफ़- हो जाए "गज़ल" न जाने किस गली में कब सनम गुमराह हो जाए बहुत है राह में खुश्बू महक हमराह हो जाए दिवानों की अजब दुनियां बना लेते ठिकाने भी महफिलें खुद नहीं सजती पहल चरगाह हो जाए।। ठिकानों की हकीकत को भला रहगीर क्या जाने सरकती रात गुजरी है पहर परवाह हो

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