“गज़ल”उस हवा से क्या कहूँ जो छल दुबारा कर गई रुक जला डाले महल औ दर किनारा कर गई रोशनी से वो नहाकर जब चली अपनी डगर देख लेती गर कभी उजड़े हुये इस चमन को तक न पाती रूह नजारा जो खरारा कर गई॥ उस पहर को क्या हुआ क्या पूछ पाती नजर सेहकबका कर पलट जाती छत उघारा कर गई॥ आज भी जो गंध ह