“गज़ल”कभी आदमी पल निरखता रहा हैकिराए के घर पर मचलता रहा हैउठा के रखा लाद जिसको नगर में तराजू झुका घट पकड़ता रहा है।।नई है नजाकत निहारे नजर को सजाकर खिलौना सिहरता रहा है।।मदारी चितेरा बनाया वखत को तमाशे दिखाकर सुलगता रहा है।।नचाता बंदरिया जमूरा बनाकर नए छोर नखरा उठाता रहा है