~~~ गीत ~~~
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मैं शिला बन देह पग पग पर बिछा दूँ ,तुम नदी बन कर बहो तो !
प्राण के उत्सर्ग का उत्सव मना लूँ , साथ चलने को कहो तो !
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साथ चलने से मिलन के स्वप्न निरवंशी न होंगे ।
इस पुरातन देह के शत रूप अर्वाचीन होंगे ।
जो अभी तक खोजते फिरते रहे संसार में हम ।
क्या पता पाएँ किनारा वह इसी मझधार में हम ।
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गर्त है क्या सिन्धु में डुबकी लगा लूँ , बाँह बाँहों में गहो तो !
मैं शिला बन देह पग पग पर बिछा दूँ ,तुम नदी बनकर बहो तो !
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सर्पदंशों की चुभन अंगार सी जलती रहे क्यों ।
हर खुशी के गर्भ में एक वेदना पलती रहे क्यों ।
सैकड़ों गतिरोध मिल पाषाण सी काया तराशें ।
सीप का मोती हँसे , हँसता रहे मेरी बला से ।
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एक शालिग्राम सा आकार पा लूँ , रूप रचने को रहो तो !
मैं शिला बन देह पग पग पर बिछा दूँ , तुम नदी बनकर बहो तो !
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@ विश्वम्भर नाथ त्रिपाठी-कानपुर ।
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