जैन धर्म के चोबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म लगभग नवमास और साढ़े सात दिन की गर्भकाल पूर्ण
होने पर चैत्र शुक्ला 13 के दिन त्रिशलादेवी ने एक दिव्य
पुत्र-रत्न को जन्म दिया।
जैन परम्परा के अनुसार जब तीर्थंकर और चक्रवर्ती की महान आत्मा किसी भाग्यशाली माता के गर्भ में आती है तो
माता चौदह महान् शुभ स्वप्न देखती हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह भी माना है कि महान् आत्मा के उदर प्रवेशके समय
माता की मनोभावना इतनी पवित्र, भव्य,एवं उदार हो जाती है तीर्थंकर का जन्म सम्पूर्ण मानव जाति के लिए मंगलमय
होता हैं।
जब से भगवान महावीर गर्भ में आये धन, धान्य, स्वजन,
राजकोष में हर प्रकार की वर्दी हुई। अतः वर्धमान नाम रखा गया। वर्धमान जन्म से ही अनंत पराक्रमी व बलशाली थे। भगवान महावीर गर्भ में ही अवधि ज्ञान से सम्पन्न थे योवन के द्वार पर पहुंचेते पहुंचते वर्धमान गम्भीर चिंता शांति समता के रूप में समाज में चमक उठे।राजा सिद्धार्थ
व रानी त्रिशला ने वर्धमान को गम्भीर देखकर शादी का विचार किया पर भगवान की वर्ति में न मोह है ना राग न भोग की आकांक्षा हैं न किसी प्रकार का भोतिक आकर्षण । उनके अन्दर तो वैराग्य और करुणा है माता का कोमल
ह्रदय ना दुखे इसलिए वो मोन हो गये मोन को , स्वीकृति
समझ कर उनका विवाह यशोदा से कर दिया गया ।
कुछ समय बाद एक पुत्री हुई प्रियदर्शना। 28वे वर्ष में वर्धमान सांसारिक प्रवृतियों से निवृत होकर एकान्त जीवन
बिताते रहे। माता पिता का वियोग का दुःख सहन नहीं कर सके। संसार में कुछ नहीं है वर्धमान ने गरीबों को दान
देना प्रारंभ किया बिना किसी प्रकार का भेदभाव किए
प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद़रा का दान किया जाता था। अहिंसा परमो धर्म व। जीओ और जीने दो ।ये भगवान ने उदघोष सम्पूर्ण विश्व के लिए दिए। इस दिव्य ज्योति की जन्म जयंती पर सबको शुभकामनाएं हमारा देश सुरक्षित रहे सभी विपदा
से दुर रहे ।