आज के दैनिक लेखन 'आधुनिक जीवन शैली' के विषय पर अपने विचार व्यक्त करने से पहले हमें हमारी भारतीय पुरातन जीवन शैली के बारे में कुछ बातें समझनी आवश्यक होंगी। तुलसीदास जी 'रामचरित मानस' के एक प्रसंग में कहते हैं कि, "बड़ भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।" अर्थात् बड़े भाग से मनुष्य जीवन मिलता है, सभी ग्रंथ कहते हैं कि यह देवताओं को भी दुर्लभ है। इसी शरीर के बारे में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी अपने प्रिय शिष्य उद्धव को बताया कि मनुष्य शरीर दुर्लभ है तथा पुण्य कर्मों से प्राप्त होता है। मनुष्य के रूप में जन्म लेना वास्तव में भाग्य की बात है। इसलिए हमारा भारतीय दर्शन "परहित सरिस धर्म नहिं भाई" सार्थक जीवन का संदेश हमें देता है। स्वस्थ जीवन शैली के मूल प्रतिपाद्य विषय पर विचार करें तो स्वस्थ रहने के लिए आयुर्वेद और योग के नियम तथा निर्देशों को व्यवहार में लाना एक कला है जो परिवार में संस्कारों के रूप में प्राप्त होती है और जो धीरे-धीरे व्यवहार में आकर जीवन शैली बन जाती है। जैसे कि सूर्योदय के पूर्व जागरण, स्नान-ध्यान, व्यायाम-योग, विश्राम, जल्दी सोना, मौसम के अनुसार आहार-विहार आदि-आदि। हमारा आयुर्वेद और योग व्यक्तिगत के साथ सामाजिक, संवेदनात्मक, भावनात्मक तथा सुचितापूर्ण जीवन जीने के विचार भी प्रस्तुत करता है, जो कि स्वस्थ जीवन शैली के अभिन्न अंग हैं। हमारे मनीषियों ने स्वस्थ जीवन जीने के लिए मात्र संहिता ग्रंथों या शास्त्रों की रचना ही नहीं की बल्कि व्रत, पर्व और त्यौहार आदि के माध्यम से स्वस्थ जीवन के सूत्रों को जन-जन में व्याप्त किया। उपवास, विशेष प्रसाद तथा व्रत, त्यौहार आदि के विशेष आहार की योजना व ऋतु एवं प्रकृति को ध्यान में रखकर की। हमारे देश के बहुलतावादी समाज में स्वास्थ्य व्यवस्थायें भी बहुआयामी रही। विभिन्न लोक स्वास्थ्य परम्परायें देश के अलग-अलग हिस्सों में विकसित हुई। हड्डी बिठाने, दाई, जड़ी-बूटी के जानकार, वैदू, भोपा आदि। देशज ज्ञान की यह कला मात्र उपचार तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें स्वास्थ्य रक्षा के सूत्र भी निहित होते थे। ये विभिन्न लोक परम्परायें आज भी मात्र घरेलू उपचार तक सीमित नहीं है, बल्कि इनके ज्ञान का आधार स्वस्थ जीवन शैली के अनुकूल है।
इसके विपरीत आज जब हम आधुनिक जीवन शैली के विषय में विचार करते हैं तो इसमें हमें बड़ी निराशा हाथ लगती है। आज जिसे पूछो वह यही कहेगा कि उसके पास समय नहीं है , वह बड़ा व्यस्त है। लेकिन यदि आप इस विषय पर यदि जरा गंभीरता से विचार करेंगे तो मेरा मानना है कि आपको समझ आयेगा कि वास्तव में समय के कमी का रोना व्यर्थ है और रही बात व्यस्त रहने की तो आप देखेंगे कि आज लोग व्यस्त नहीं 'अस्त-व्यस्त' अधिक रहते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि आज हमारी जीवन शैली अस्त-व्यस्त है। इसलिए हमारा खान-पान, रहन-सहन सबकुछ बदल गया है। भौतिक सुखों की होड़ में स्वस्थ जीवन जीने का सलीका भूलकर आज हम इधर से उधर भागते फिर रहे हैं और शरीर पर कोई ध्यान न देकर कुछ भी अनाप-शनाप खाने से गुरेज न पाने के कारण कई शारीरिक रोगों के शिकार हो रहे हैं। जीवन स्वस्थ कैसे रखे यह आज गंभीर विषय बना हुआ है। इसी गंभीरता को देख आज विभिन्न सामाजिक और शिक्षण संस्थाओं में जागरूकता अभियान देखकर ख़ुशी होती है कि इससे निश्चित ही हमारी पुरातन स्वस्थ जीवन शैली को अपनाकर लोग स्वस्थ रहकर अपना जीवन यापन कर सकेंगे। इसी सन्दर्भ में अभी कुछ दिन पहले बच्चों के स्कूल में मैंने एक प्रर्दशनी में एक बहुत अच्छी बात देखी जिसमें चौथी -पांचवी कक्षा के छात्रों का स्वास्थ्य संबंधी मॉडल जिसमें आजकल की बिगड़ती खानपान शैली के प्रति सावधान करते हुए स्वस्थ रहने के लिए नसीहत देते स्लोगन जैसे- ‘पेट के दुश्मन हैं तीन, पिज्जा, बर्गर और चाउमिन’, 'रहना है अगर डाक्टर से दूर, फल-सब्जी रोज खाओ हुजूर’ मोटापा है गर घटाना, गाजर-मूली ज्यादा खाना’ ‘बनना है अगर जीनियस, फल-सब्जी को लेकर रहो सीरियस’ सभी को अपने शरीर को स्वस्थ रखने का संदेश दे रहे थे। इसके साथ ही संस्कृत भाषा के मॉडल और प्रस्तुतीकरण सबको ऋषि-मुनि, आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति, जड़ी-बूटियां और जंतुशाला की झलक दिखलाते हुए हमारे प्राचीन जीवन शैली के महत्व को जीवंत किए हुए विराजमान थे।