कहने को तो परिवार एक छोटा सा शब्द है, लेकिन यही वह जगह होती है, जिसके इर्द-गिर्द मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन चक्र घूमता है। परिवार के बारे में जब हम विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि परिवार मर्यादा, परस्पर कर्त्तव्य, अनुशासन की एक ऐसी पारम्परिक इकाई है, जिसमें प्रत्येक सदस्य अपना-अपना सहयोग देता है और परस्पर लाभ का भागी बनता है। परिवार को एक व्यक्ति के अधीन संरक्षण में रहने वाले लोगों का समूह भी कह सकते हैं। संक्षेप में परिवार को हम मनुष्य की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति द्वारा स्थापित एक महत्वपूर्ण संस्था निरूपित कर सकते हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार मनुष्य जन्म लेने के साथ ही तीन ऋण- देव, ऋषि और पितृ ऋण का ऋणी होता है। इन तीनो ऋणों में पितृ ऋण किसी भी परिवार की वह आधारशिला होती हैं, जहाँ माता-पिता सन्तानोत्पत्ति द्वारा वंश परंपरा को बनाये रखने तथा संसार की सृष्टि प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान देते है। इस संसार में आकर सुख भोगने का सामर्थ्य माता-पिता और हमारे पूर्वजों के पुण्य प्रताप से संभव हो पाता है। इसलिए इस ऋण से उऋण होना देव और ऋषि या गुरु ऋण जैसा नहीं है। पारिवारिक जीवन का मूल आधार नारी को माना गया है। महाभारत के शांतिपर्व में "न गृहं गृहमित्याहुः, गृहिणी गृह मुच्यते" अर्थात गृह-गृह नहीं है, अपितु गृहिणी गृह होता है। इसके साथ ही मनुस्मृति में निर्देश भी दिए कि, "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः" अर्थात पारिवारिक जीवन में जब तक नारी का सम्मान रहेगा, वहां देवता निवास करेंगे, जिससे सुख,शांति तथा समृद्धि की त्रिवेणी बहती रहेगी।
किसी भी समाज की आधार शिला परिवार ही होती है। किसी भी समाज में जितनी अधिक संख्या में परिवारों की सुदृढ़ पारिवारिक स्थिति देखने को मिलेगी, वह समाज उतना ही उन्नत, विकासशील और जिसमें बिखराव देखने को मिलेगा, वह उतना ही कमजोर होगा। पारिवारिक एकजुटता का भाव ही स्वस्थ समाज की नींव बनती है। लेकिन आज दुर्भाग्य से पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण पारिवारिक सदस्यों ने निजी स्वार्थ को सर्वोपरि मानकर छोटी-छोटी बातों को लेकर लड़ाई-झगडे कर सयुंक्त परिवार में रहना छोड़ दिया है, जिसके कारण सयुंक्त परिवार टूटकर एकल परिवार बनकर रह गए हैं, जहाँ माता-पिता को दकियानूसी बताकर अलग करने का चलन जोरों पर है। आज पारिवारिक जीवन एक पुरुष या स्त्री के परिवार तक सीमित होकर रह गया है। वे अपने बच्चों में अपना संसार देखने लगे हैं। । आज जिसे देखो वही पैसा बनाने की जुगत में दिन-रात खटता नज़र आता है, यह पैसे की भूख भी एकल परिवार के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है।
संक्षेप में यदि आज के परिदृश्य में परिवार की बाते करें तो इस विषय में डॉ. गोपाल जी मिश्र ने बड़े ही सटीक शब्दों में अपने विचार व्यक्त किये हैं, जहाँ वे लिखते हैं कि, "समाज में ज्यों-ज्यों औद्योगीकरण एवं नगरीकरण बढ़ता जा रहा है, त्यों-त्यों पारिवारिक समबध भी प्रभावित होते जा रहे हैं। समाज में कुछ ऐसे तथ्य जैसे कि बेरोजगारी, सुविधाओं की न्यूनता, विभिन्न संस्कृतियोँ का प्रभाव आदि पारिवारिक मूल्यों को प्रभावित करते जा रहे हैं। तेजी से बदलते हुए मूल्य पारिवारिक संगठन एवं वातावरण को प्रभावित करते जा रहे हैं। इस प्रभाव का परिणाम पारिवारिक संबंधों में ह्रास के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। संबंधों में स्थिरता घट रही है. परिवर्तनशीलता बढ़ रही हैं।"