जीवन गति बड़ी निराली है, इसे मापने का कोई निश्चित पैमाना नहीं है। संसार में कर्म और भाग्य के बारे में कोई एक धारणा नहीं है। भाग्य और कर्म दोनों के लिए अलग-अलग धारणाएँ पुरातन काल से ही प्रचलित हैं, जिसमें किसी ने भाग्य तो किसी ने कर्म को प्रधान बताया है। भाग्यवादी 'अजगर करे न चाकरी, पंछी करें न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम" सिद्धांत को मानकर भाग्य को बलवान और कर्म को निरर्थक मानते हैं। वे किसी भी कार्य की असफलता के लिए भाग्य को ही दोष देते हैं। उनका सिद्धांत वाक्य, "भाग्यहीन खेती करें, बैल मरे या सूखा पड़े" रहा है। भर्तृहरि भी इसका समर्थन करते हुए कहते हैं , "करील वृक्ष में यदि पत्ते नहीं हैं, तो वसंत का क्या दोष? उल्लू यदि दिन में नहीं देख पाता, तो सूरज का क्या दोष? विधाता ने जो भाग्य में लिख दिया है, उसे कौन मिटा सकता है?" एक प्रसंग में महाकवि तुलसी दास जी ने भी भाग्य को बलवान मानते हुए लिखा है ," हँसि बोले रघुवंश कुमारा। विधि का लिखा को मेटनहारा।" हरिवंश पुराण भी मानता है कि , "दैवं पुरुषकारणे न शक्यमति वर्तितुम" अर्थात पुरुषार्थ (कर्म) से भाग्य के विधान का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। वे अपने मत के प्रमाण में 'भाग्यं फलति सर्वत्र, न हि विद्या न च पौरुषम" का उद्घोष कर समुद्र मंथन का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि विष्णु को लक्ष्मी और शंकर को विष प्राप्त हुआ था, जो भाग्य का ही खेल है। आगे उनका मानना है कि भाग्य के कारण ही दो समान परिश्रम करने वाले व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होता है। जिसके कारण कोई भाग्य की अनुकूलता से सुखी तो कोई दरिद्र बना रहता है। वे जीवन की सफलता-असफलता को भाग्य पर निर्भर मानकर चलते हैं।
इसके विपरीत कर्मवादी गीता का सार 'कर्मणेवाधिकारस्ते मा फलेश कदाचन' को बल देते हुए कर्म को भाग्य से श्रेष्ठ स्थान देते हैं। उनका मत है कि भाग्य हमारा शरीर है तो कर्म शरीर में अन्तर्निहित शक्ति तत्व हैं, जो हमारे भाग्य का निर्धारण करता है। वे इसके लिए हमारे धार्मिक ग्रन्थ रामायण और महाभारत का कई प्रसंगों से यह बात स्पष्ट करते हैं। उनका मानना है कि इस भू-लोक में जो भी प्राणी जन्म लेता हैं, उसे यहाँ आकर जीवन जीने के लिए कर्म करना ही पड़ता है। भाग्य के भरोसे बैठकर किसी को कभी भी कुछ हासिल नहीं हो सकता है। यहाँ भू-लोक में जन्म लेकर चाहे भगवान कृष्ण हो या राम, सबको मनुष्य रूप में आकर वे सारे कर्म करने पड़े, जो एक आम मनुष्य करता है। कर्म करने वाले समर्थकों का दृष्टिकोण है कि 'अजगर करे न चाकरी, पंछी करें न काम" वाले भाग्यवादियों को नहीं भूलना चाहिए कि ,"नहिं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:" अर्थात शेर को भी शिकार को पकड़ने के लिए उद्यम करना पड़ता है, उसके मुख में मृग अपने आप नहीं चला आता। कर्म से ही मनुष्य ने पृथ्वी से खाद्य सामग्री ही नहीं अपितु प्राकृतिक संसाधन जो शक्ति के स्रोत हैं, प्राप्त किये हैं। कर्म से ही मनुष्य ने सागर से लेकर आकाश तक उड़ान भरी हैं। अंतरिक्ष में चन्द्रमा और मंगल ग्रह की खोज बिना कर्म किये नहीं की है।महाभारत के अनुसार ' किया हुआ कर्म ही भाग्य का अनुकरण करता है, किन्तु कर्म न करने पर भाग्य किसी को कुछ नहीं दे पाता। वेदव्यास जी ने भी महाभारत में कहा,"कर्म समायुक्तं दैवं साधु विवर्धते" अर्थात कर्म का सहारा पाकर ही भाग्य भलीभांति बढ़ता है। उनका यह भी कहना है कि ," जैसे बीज खेत में बोए बिना निष्फल रहता है, उसी प्रकार कर्म के बिना भाग्य भी सिद्ध नहीं होता।" शुक्रनीति भी कर्म का समर्थन करते हुए कहती है कि ," अनुकूले यदा दैवे क्रियाsल्पा सुफला भवेत्" अर्थात जब भाग्य अनुकूल रहता है, तब थोड़ा भी कर्म सफल हो जाता है। इसलिए कर्म किये बिना भाग्य का उत्कर्ष नहीं हो सकता है।