हमारी भारतीय संस्कृति उत्सवधर्मी है, जहाँ वर्ष भर तन-मन की थकान दूर करने के उद्देश्य से हमारे धार्मिक ग्रंथों में तीज-त्योहारों का उल्लेख कर उन्हें समय-समय पर मनाये जाने का वर्णन किया गया है। इन त्योहारों के पीछे वर्ष भर बदलते मौसम के अनुसार कई स्वास्थ्यगत और थके-हारे मन को तरोताजगी से भरने के उत्क्रम हमें देखने को मिलते हैं। कोई भी त्यौहार हो, उसे मनाये जाने के कई कारण छुपे होते हैं। मुझे बचपन से ही यह बात अच्छे से याद है कि जब भी कोई तीज-त्योहार आता था तो घर के बड़े लोग घर की साफ़ सफाई तो हम बच्चे घर के आँगन को गोबर-मिट्टी से लीपने-पोतने बैठ जाया करते थे, जो हमारे लिए किसी खेल से कम नहीं हुआ करता था। तब आज की तरह त्यौहार धूम-धड़ाका, देख-तमाशा जैसा मनाने का चलन नहीं था। होता भी कैसे तब आज जैसा पैसा-पल्ला भी न था। एक कमाने वाला होता था तो खाने वाले ८-१० प्राणी। हाँ तब एक बात जरूर थी कि हमारे घर में हमने गाय पाल रखी थी तो दूध-घी तो खूब मिल जाता है, लेकिन और चीजे नहीं खरीद पाते थे। दीपावली जैसे त्यौहार पर ही नए कपडे मिलते थे। मिठाई तक नहीं खरीद पाते थे। मुझे याद है जब भी कोई त्यौहार आता तो तब मेरे एक चाचा जी जो बीएचईएल में नौकरी करते थे, वे ही हमारे लिए हर बार मिठाई लेकर आते थे, जिससे हमें मिठाई खाने को मिलती थी। दीपावली को वे ही कुछ फुलझड़ी और पटाखे लेकर आते थे तो हम बच्चे उन्हें ही मोहल्ले भर के बच्चों को दिखा-दिखाकर फोड़ते थे और खुश हो लेते थे।
आज के समय में त्यौहार का मलतब दिखावा करना ज्यादा हो गया है। जैसे दीपावली को ही लीजिए- आज अधिकतर लोग नए-नए महंगे-महंगे कपड़े लत्ते पहनकर सस्ते-महंगे दीयों में घी-तेल भरकर घर-आंगन को रोशन कर धन लक्ष्मी की पूजा अर्चना की परम्परा तो निभाते हैं, लेकिन इसके साथ ही महंगी-महंगी उपहार की वस्तुओं को खरीद कर उनका दिखावा करने का प्रचलन ज्यादा है। जबकि पहले ऐसा नहीं था। तब इन्हें मनाने के पीछे एक सर्व धर्म समभाव का भी उद्देश्य होता था और होता था सबको स्वस्थ और सुखी देखने का एक माध्यम। तब गांव का किसान हो या शहर का मजदूर दिन भर काम करके जब वह बुरी तरह थक जाता था तो उनकी परिश्रम की थकान को मिटाने तथा प्रसन्न रहने के लिए समय-समय धूमधाम से मनाये जाने वाले यही त्यौहार होते थे जो उनमें नई उमंग-तरंग भरकर ऊर्जा संचरण का काम करते थे, जो उन्हें स्वस्थ रहने के लिए बहुत जरूरी होते थे।