मानव ,जब इस संसार में अपनी आँखें खोलता है ,तब उसे समाज ,रिश्ते ,प्रकृति और इस संसार की रंगीनियां नजर आती हैं, और वो इन सबमें अपने को उलझा लेता है। कुछ लोग इस संसार के मोह से शीघ्र ही ,बाहर आ जाते हैं। वो समाज और संसार के विषय में नहीं ,अपने विषय में सोचने लगता है। मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है ? मैं यहाँ क्यों हूँ ? इससे परे भी क्या कोई दुनिया है ? अपनी चेतना ,आत्मा की जानकारी के लिए उत्सुक हो उठता है।
प्राचीन समय में ' अध्यात्म 'की जानकारी शिक्षा के माध्यम से भी दी जाती थी ,ताकि बालक के विचार बाहरी परिवेश में ,अपने को न खो दें ,वो सामाजिक कार्यों को करते हुए भी ,सत्य और धर्म की राह पर चले और समय आने पर परिवार व संसार का मोह छोड़कर ,'वानप्रस्थ 'में जाएँ। वहां अपनी ''अध्यात्म ''उन्नति कर सकें। बहुत से लोग तो घर -संसार को त्यागकर भी परिवार का मोह नहीं त्याग पाते थे।
''मन मैला और तन को धोये , फूल को चाहे ,कांटे बोये। ''
की तर्ज पर ,संतों ने मन के शुद्धिकरण पर ध्यान दिया। अपने मन से छल ,कपट ,मोह ,लालच ,ईर्ष्या इत्यादि मैल को बाहर कर ,अपने तन रूपी बर्तन को माँजना है। जब ये सभी चीजें आपके तन से बाहर हो जाएँगी ,तब आपका मन स्वच्छ ,निर्मल हो जायेगा। जब 'समदृष्टि ','समभाव 'होगा। तब व्यक्ति अध्यात्म की ओर आगे बढ़ने के लिए तैयार होता है।आपके मन में लोभ भी है ,मोह भी है ,ईर्ष्या भी है ,लालच जैसे अवगुण भरे हैं ,तब ये तन तो अशुद्ध है। ऐसे मन और तन से तुमने घर त्याग भी दिया तो कोई लाभ नहीं। मन तो अभी भी वहीं फंसा है, इसीलिए पहले अपने मन से ये विकार निकालकर अपने मन और तन को शुद्ध करने पर जोर दिया है। और जब '' मन चंगा तो कठौते में गंगा। '' संत रैदास जी की कहावत स्मरण हो जाती है। इससे जुडी एक कहानी है -'संत रैदास 'अपने प्रभु का स्मरण करते हुए ,अपने कार्य में व्यस्त रहते थे। एक बार गंगा स्नान पर ,सभी गंगाजी में नहाने जा रहे थे किन्तु रैदास अपने कार्य में लगे रहे। वो एक चर्मकार थे ,तब एक श्रद्धालु के कहने पर ,क्या तुम गंगाजी नहाने नहीं चल रहे हो ?उन्होंने उससे कहा- ये मेरी मेहनत का एक टका है ,मेरी तरफ से गंगाजी को दे देना। उस व्यक्ति ने ,गंगाजी को वो एक टका रैदास के नाम से समर्पित करना चाहा , तभी गंगाजी स्वयं प्रकट होकर ,उससे वो टका लेती हैं। बदले में ,वो एक कंगन रैदास को देने के लिए कहती हैं। उस व्यक्ति ने सोचा -रैदास को तो पता ही नहीं कि गंगा ने उसे एक रत्नों से जड़ित कंगन दिया है ,इसीलिए ये कीमती कंगन राजा को देकर उन्हें खुश कर ,इनाम ले लेता हूँ।
जब राजा ने वो कंगन रानी को दिया तो रानी को वो बहुत अच्छा लगा और राजा से ऐसा ही उसका दूसरा जोड़ी कंगन लाने के लिए कहा। किन्तु उस व्यक्ति के पास तो एक ही कंगन था। अब राजा ने उससे दूसरा जोड़ी कंगन लेन के लिए ,उस व्यक्ति से कहा ,उस व्यक्ति ने दूसरा कंगन लाने में असमर्थता व्यक्त की तब राजा को क्रोध आ गया और उससे कहा -'ऐसा दूसरा कंगन न मिलने पर तुम्हें मृत्यु दंड दिया जायेगा। 'अब तो वो व्यक्ति परेशान हो उठा और उसने रैदास के पास जाकर सम्पूर्ण जानकारी उन्हें दी और दूसरा कंगन कहाँ से लाये ?अपनी विवशता जतलाई । तब संत रैदास ने अपने पानी के कठौते में से ही ,ऐसा ही दूसरा कंगन निकालकर उस व्यक्ति को दे दिया। जब उस व्यक्ति ने पूछा -ये कैसे हुआ ,''तब उन्होंने यही कहावत दोहराई ,कहते हैं ,तभी से ये कहावत चली आ रही है।
इस कहानी से एक बात तो साबित होती है , अध्यात्म कोई आसान चीज नहीं ,सामाजिक कर्म करते हुए भी अपने प्रभु का सदैव स्मरण रखना चाहिए। इससे पहले अपने मन के विकारों से इस तन को शुद्ध करना पड़ता है। जिस प्रकार किसी बर्तन को भरने के लिए ,पहले उसे ख़ाली करना होता है। इसी प्रकार हमारा तन जो विकारों से भरा पड़ा है ,उनसे उसे ख़ाली करना होगा। तब उसमें परमात्मा रूपी नाम को स्थान मिलेगा। और तब व्यक्ति 'अध्यात्म 'की ओर पहली सीढ़ी चढ़ता है।
संतों के अनुसार ,संसार में रहकर ही ,अपने मन को जीता जा सकता है ,उनके अनुसार घरबार छोड़कर कहीं भी बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं। कर्म करते हुए अपने ज्ञान की लौ उस परमात्मा से जोड़कर रखें तब तुम सत्य की राह पर चल पाओगे और सत्य कर्म करते हुए ,''अध्यात्म ''की ओर बढ़ते चले जाओगे।